यह जो जीवन है, रामलीला का अभिनय ;
कर रहे हो तुम सदा, लो सुनो परिचय ।
लंकापुरी है यह शरीर,
इसका राजा है अहंकार रूपी रावण ।
रावण का सहचर है,
मंदोदरी रूपी मन ।
सदैव से रामभक्त, विवेक है विभीषण,
मोह निद्रा से आवृत, बुद्धि है कुम्भकर्ण ।
भोग संग्रह रूपी, साधन है मेघनाद,
विकार रूपी राक्षश, करे लंका में निवास ।
अशोक वाटिका रूपी हृदय में, स्थित है सीता रूपी आत्मा,
जो सदा है शुद्ध बुद्ध, चाहती है मिले राम रूपी परमात्मा ।
पीड़ा जब इतनी बढ़ जाए,
राजसिकता की चिता सज जाए ।
आते है हनुमान रूपी गुरुदेव,
दुन्ढ़ते है मन रूपी मंदोदरी के महल में,
जगाते है विवेक को, विभीषण के भवन में ।
अकारण करुण होते है, गुरु स्वयं कृपा में,
प्रवेश करते है ह्रदय रूपी अशोक वाटिका में ।
विश्वास दिलाते है, सीता रूपी आत्मा को,
मिला देंगे राम रूपी, परमात्मा को ।
चाहते तो हनुमान, ले जाते सीता को उठाकर,
मिला देते राम को, सहज ही कृपा कर ।
लेकिन चाहते है कि, हो अहंकार रूपी रावण का नाश,
परमात्मा की लीला पूरी हो, यही उनका प्रयास।
बात करे कुछ पुरानी, ताकि पूरी हो सके कहानी ।
परमात्मा एक से अनेक हुए, बना दिए जीव, भव और भव पीर,
और दिया अपने अंश जीव को, श्रेष्ठ मानव शरीर ।
जीव ने कहा, क्यों भला, क्यूँ भेज रहे हो मर्त्य लोक,
मैं आपका अंश सदा, नहीं चाहता कोई भोग ।
परमात्मा को लीला करनी थी,
अतः जीव पर दया आनी थी।
दिया कवच आत्मा को, रहेगी शुद्ध बुद्ध ऐसे,
सीता को अग्नि प्रवेश, हरण से पूर्व दिया जैसे ।
गर्भ के दस मास गुजरे, सीता के अशोक वाटिका में,
शेष अनेक जन्म गुजरे, जीव के मोह निद्रा में ।
ईश्वर ने भी देखा, जीव है मुझे भुला हुआ,
मस्त है कर्मो में, अपनी आजादी में खोया हुआ ।
हनुमान ने कहा राम से, जीव भले खोया हुआ,
आत्मा की रक्षा आपका, कवच करता है सदा ।
करो कृपा, कर दो उद्धार, सीता रूपी आत्मा का,
भेजो भजन रूपी वानर,
जो कर दे नाश, विकार रूपी राक्षश का ।
अंगद रूपी निश्चय को, भेजो पहले लंका में,
ताकि अहंकार को चेता दे, अपने ही घर में ।
परमात्मा रूपी राम की कृपा से होता नाश ,
प्रयत्न, सामर्थ्य, रूपी मेघनाद का,
मोहनिद्रा रूपी कुम्भकर्ण का,
और अहंकार रूपी रावण का ।
मंदोदरी रूपी मन, लेता, विभीषण का आश्रय,
सत और असत, सभी अब लंका में रहे निर्भय ।
जीव की परीक्षा, लेकिन लेते है भगवान,
अग्नि परीक्षा सीता की, होगी, यह निश्चित जान ।
जीव का पुनः अग्नि प्रवेश ही, उसे देगा वास्तविक रूप,
राम रूपी परमात्मा की कृपा, है अनूठी, अनूप ।
सीता और राम का मिलन हनुमान के बिना कैसे हो ?
आत्मा और परमात्मा का मिलन गुरुदेव के बिना कैसे हो ?
हे गुरुदेव, अब लंकापुरी के रावण का शीघ्र नाश हो !
करो कृपा कि, शीघ्र ही विवेक का, विकास हो ।
तुम्हरो मंत्र विभीषण माना , लंकेश्वर भये सब जग जाना ।
हम पर भी करो गुरुदेव कृपा,
नाश हो अहंकार का, मिले भगवतकृपा ।
कर रहे हो तुम सदा, लो सुनो परिचय ।
लंकापुरी है यह शरीर,
इसका राजा है अहंकार रूपी रावण ।
रावण का सहचर है,
मंदोदरी रूपी मन ।
सदैव से रामभक्त, विवेक है विभीषण,
मोह निद्रा से आवृत, बुद्धि है कुम्भकर्ण ।
भोग संग्रह रूपी, साधन है मेघनाद,
विकार रूपी राक्षश, करे लंका में निवास ।
अशोक वाटिका रूपी हृदय में, स्थित है सीता रूपी आत्मा,
जो सदा है शुद्ध बुद्ध, चाहती है मिले राम रूपी परमात्मा ।
पीड़ा जब इतनी बढ़ जाए,
राजसिकता की चिता सज जाए ।
आते है हनुमान रूपी गुरुदेव,
दुन्ढ़ते है मन रूपी मंदोदरी के महल में,
जगाते है विवेक को, विभीषण के भवन में ।
अकारण करुण होते है, गुरु स्वयं कृपा में,
प्रवेश करते है ह्रदय रूपी अशोक वाटिका में ।
विश्वास दिलाते है, सीता रूपी आत्मा को,
मिला देंगे राम रूपी, परमात्मा को ।
चाहते तो हनुमान, ले जाते सीता को उठाकर,
मिला देते राम को, सहज ही कृपा कर ।
लेकिन चाहते है कि, हो अहंकार रूपी रावण का नाश,
परमात्मा की लीला पूरी हो, यही उनका प्रयास।
बात करे कुछ पुरानी, ताकि पूरी हो सके कहानी ।
परमात्मा एक से अनेक हुए, बना दिए जीव, भव और भव पीर,
और दिया अपने अंश जीव को, श्रेष्ठ मानव शरीर ।
जीव ने कहा, क्यों भला, क्यूँ भेज रहे हो मर्त्य लोक,
मैं आपका अंश सदा, नहीं चाहता कोई भोग ।
परमात्मा को लीला करनी थी,
अतः जीव पर दया आनी थी।
दिया कवच आत्मा को, रहेगी शुद्ध बुद्ध ऐसे,
सीता को अग्नि प्रवेश, हरण से पूर्व दिया जैसे ।
गर्भ के दस मास गुजरे, सीता के अशोक वाटिका में,
शेष अनेक जन्म गुजरे, जीव के मोह निद्रा में ।
ईश्वर ने भी देखा, जीव है मुझे भुला हुआ,
मस्त है कर्मो में, अपनी आजादी में खोया हुआ ।
हनुमान ने कहा राम से, जीव भले खोया हुआ,
आत्मा की रक्षा आपका, कवच करता है सदा ।
करो कृपा, कर दो उद्धार, सीता रूपी आत्मा का,
भेजो भजन रूपी वानर,
जो कर दे नाश, विकार रूपी राक्षश का ।
अंगद रूपी निश्चय को, भेजो पहले लंका में,
ताकि अहंकार को चेता दे, अपने ही घर में ।
परमात्मा रूपी राम की कृपा से होता नाश ,
प्रयत्न, सामर्थ्य, रूपी मेघनाद का,
मोहनिद्रा रूपी कुम्भकर्ण का,
और अहंकार रूपी रावण का ।
मंदोदरी रूपी मन, लेता, विभीषण का आश्रय,
सत और असत, सभी अब लंका में रहे निर्भय ।
जीव की परीक्षा, लेकिन लेते है भगवान,
अग्नि परीक्षा सीता की, होगी, यह निश्चित जान ।
जीव का पुनः अग्नि प्रवेश ही, उसे देगा वास्तविक रूप,
राम रूपी परमात्मा की कृपा, है अनूठी, अनूप ।
सीता और राम का मिलन हनुमान के बिना कैसे हो ?
आत्मा और परमात्मा का मिलन गुरुदेव के बिना कैसे हो ?
हे गुरुदेव, अब लंकापुरी के रावण का शीघ्र नाश हो !
करो कृपा कि, शीघ्र ही विवेक का, विकास हो ।
तुम्हरो मंत्र विभीषण माना , लंकेश्वर भये सब जग जाना ।
हम पर भी करो गुरुदेव कृपा,
नाश हो अहंकार का, मिले भगवतकृपा ।