Thursday, June 23, 2016

'स्वयं करे उद्धार'

उद्धार करे क्या कोई किसी का यहाँ पर,
स्वयं ही आदर न दे, विवेक को जहाँ पर ,
यदि परमात्मा की कृपा से होता उद्धार जीव का,
उद्धरेत आत्मनात्मानम से भ्रमित करें क्यों भला ?

यह जो कह रहे, समझा रहे, 
स्वयं भगवान ही तो प्रगट हुए। 
अपना पता प्रभु कभी, देते नहीं हैं जीव को,
लेकिन शरणागत की रक्षा में, प्रगट कर देते स्वयं को। 
जीव का प्रयास तो मात्र उद्धार की चाह है,
आदर दे स्व विवेक को, मात्र यही राह है,
भगवत्कृपा के लिए प्रभु करते हैं चुनाव,
पानी में उतरो तो पार लगाते हैं नाव ,
अपना मित्र स्वयं बनो, अपने विवेक के आदर से,
अपना शत्रु मत बनो, अपने मन के शासन से। 

मन की गुलामी को हम आजादी समझ लेते हैं ,
परम स्वतन्त्रता आत्म ज्ञान से, यह नहीं समझ पाते है। 
लायक हैं जूते खाने के, मन में तो सब जानते हैं ,
पश्चाताप के जूते मगर, सब, चुपचाप सह जाते हैं। 
दुनिया के सामने, भले बने फिरते हैं,
मौका पाते ही, दूसरे के दोष देखते हैं ,
भगवत्कृपा के साधन सभी, गुरु कृपा से मिल गये हैं,
अवसर सामने है उपस्थित, फिर भी चूक सकते हैं। 

गुरु की आवश्यकता नहीं, यह स्वामी जी की व्याख्या है,
उस मार्ग के राही हम नहीं, यह बात जानने की है,
परमात्मा स्वयं मार्ग दिखलाते हैं ,
उचित स्थान पर स्वतः पहुंचाते हैं। 

अब अपना ध्यान हम क्यों भटकाएं भला,
तद्विद्धि प्रणिपातेन, परिप्रश्नेन, सेवया। 
प्रणाम तो प्रदर्शित भी किया जा सकता है,
प्रश्न भी, कहीँ से भी, लाया जा सकता है,
लेकिन प्रश्न स्वयं का हो, अपने मन में हो जन्मा,
शास्त्रीय प्रश्न से शिष्य का, कभी न होता है भला,
गुरु के ज्ञान और स्तर का निर्णय शिष्य कैसे कर सकते है,
सद्गुरु भगवान की कृपा प्राप्त, भगवान जैसे ही होते  हैं। 

जो देख सकते हो आसान बात, कि चाह न हो, इनमें से किसी की,
धन, काम, या प्रसिद्धि, तीनो पर दृष्टि न होती सद्गुरु की,
फिर तो बात आसान है, जब कहीँ मन ठहर जाये,
बात हो अध्यात्म की, स्व विवेक से समझ आये,
जो प्रश्न मन में जन्मे हो, सब उत्तर पा जाये ,
सद्गुरु स्वयं ध्यान में, तुम्हें सब बता जाये। 
लेकिन बात इससे भी बने, यह होगा नहीं,
सेवा के बिना, अहंकार मिटेगा नहीं। 

अहंकार के रूप अनेक, कभी समझ नहीं आते,
जितनी भी पहचान अपनी, हम संसार से पाते। 
साधक परिवार भी, जब करे प्रशंसा,
कभी गुरु भी कर दे अनुशंषा ,
कभी मन में लगे कि प्रगति हो रही है,
संसार से वीतराग होने की बात बैठ रही है,
सुबह जागा यह अहंकार,
और शाम को होता बंटाधार। 

सेवया का अर्थ होता है, सेवा के द्वारा,
सेवा हो कैसे ? निर्णय सेव्य के द्वारा। 
प्रदर्शन सम्मान देने का, विनम्रता का करते यहीं,
मन के विरुद्ध बात सुनने का धैर्य भीतर है नहीं, 
जो बात मन के विरुद्ध हो, लगे यहाँ आना व्यर्थ है,
मन कहे कि 'संसार से पार जाने में जीव स्वयं समर्थ है'। 
और खुद को पता भी नहीं चलता, हो जाता है पतन,
दिन, महीने, साल व्यर्थ, सवारी करने लगता मन। 

कैसे हो रक्षा स्वयं से स्वयं की,
बात तो थी स्वयं से स्वयं के उद्धार की। 
स्व विवेक का आदर तो, सभी को कर लेना चाहिए,
लेकिन, इस कमजोर अहंकार को, सहारा चाहिए। 
यह काले सर्प की भाँति, फुंकारता है रात दिन,
अपने भय के कारण, जहर उगलता है सारे दिन,
इस कालियनाग के, फन हैं हमारी इन्द्रियाँ ,
मन के शासन में करे, रस भोग ये सर्वदा। 
इन्हे मर्दन करते है स्वयं, कृष्ण विवेक के द्वारा,
लेकिन अहंकार भरमाता, बुद्धि को मन के द्वारा। 

यही शास्त्र , यही ज्ञान अपना अर्थ प्रकट करने लगते हैं ,
जब सद्गुरु की सेवा से अहंकार का मर्दन करते है,
गुरु के वचनों को ध्यानपूर्वक सुनना,
यथासम्भव पालन करने का भाव रखना,
यही तो सेवा की शुरुआत है,
गुरु संसार के पार हैं, उन्हें संसार की कहाँ प्यास है। 
सद्गुरु परीक्षण करते रहते हैं शिष्य का,
याद करने मात्र से निरीक्षण कर देते है शिष्य का। 
उनकी प्रेरणा ही विवेक को सबल बनाती है,
झूठे राजा बने, मन को सही राह पर लाती है। 

सब कुछ होने पर भी बाहर भला क्या होता है,
यह वाकया तो सारा भीतर ही घटित होता है,
लेकिन सब कुछ न भी हो, इतना तो निश्चित होता है,
संसार में जीना पहले से आसान होता है। 
तितिक्षा के अभ्यास से अनित्य का प्रभाव कम हो जाता है,
गुरु कृपा से अशुभ प्रारब्ध भी क्षीण हो जाता है। 
सेवा और समर्पण से कभी अहंकार मिटे न मिटे ,
गुरु कृपा से हो भगवत्कृपा, संसार के बंधन मिटे। 

संसार का बंधन यह संसार नहीं है,
यहाँ हो रहां विनिमय व्यापार भी नही है,
बंधन है मात्र, अहंकार के द्वारा, संसार का परिचय,
अहंकार के बिना तो, यह संसार ही है वासुदेवमय। 

प्रणिपात हम कर सके, गुरुदेव कृपा कर दो,
प्रश्न रहे न रहे, सेवा का वर दो,
हमे नही चाह अब किसी और बात की,
कृपा कर दे, हमें शरण मिले आपकी। 

ॐ गुरु शरणम् ,ॐ गुरु शरणम् ,ॐ गुरु शरणम्। 



Thursday, May 5, 2016

ॐ गुरु शरणं (Birthday on 5th May 2016)

सृष्टि से पूर्व क्या प्रलय हुआ था ?
या प्रलय से पूर्व सृष्टि नहीं थी ?
क्या सृष्टि के पश्चात प्रलय नहीं होगा ?
या प्रलय के पश्चात सृष्टि न होगी ?
नित्य निरन्तर परिवर्तन , यही है सृष्टि का क्रम ,
प्रति क्षण होती सृष्टि एवं प्रति क्षण होता प्रलय ,
पूर्व और पश्चात कुछ भी तो नहीं,
वर्तमान के अतिरिक्त और कुछ नहीं। 

चेतना का देह के साथ जब अवतरण हुआ,
रूदन, हास्य, भूख व प्यास का स्मरण हुआ,
चेतना का तादात्म्य देह के साथ होने लगा,
मन के संकल्प के साथ देह में विचलन होने लगा। 
चेतना मन के रूप में सीमित हो गयी,
असीमित का अंश देह के साथ मिश्रित हो गयी। 

विजातीय का मिश्रण कभी हो नहीं पाता ,
चेतना को देह की सीमा में चैन मिल नहीं पाता ,
अपने को देह के साथ सीमित जान लिया,
देह के सुख दुःख को अपना मान लिया। 
निरंतर अपना मूल स्वभाव कचोटता रहा,
असीमित चेतन देह की सीमा में विकल होता रहा। 

असीमित होने लगा भूख, प्यास, हास्य और रूदन,
देह की सीमित आवश्यकता लेकिन जीव कर रहा संग्रहण,
देह के साथ तादात्म्य से माना स्वयं को सीमित,
परमात्मा की सृष्टि में, जीव ने किया अहंकार निर्मित। 

सृजन तो मात्र परमात्मा ही करते हैं ,
स्वयं ही शक्ति से प्रकृति रूप रहते हैं ,
स्वयं ही चेतन, जीव रूप में हुए प्रकट,
माया का यह खेल स्वयं का, स्वयं ही बने हुए है नट। 

जीव निर्मित अहंकार भ्रान्ति के सिवा कुछ नहीं ,
इसी लिए मुक्ति की चाह , भ्रान्ति से मुक्ति की ही । 
जब बंधन स्वयं भ्रान्ति हो तो मुक्ति सत्य कैसे होगी?
भ्रान्ति के मिटने से भी मुक्ति, नहीं, शांति ही होगी। 

सत्य है परमात्मा, सृष्टि और यह परिवर्तन,
सत्य है माया के मध्य नटवर का यह नर्तन,
असत्य है, मात्र अहंकार और तादातम्य,
असत्य है प्यास, कि हो जाये स्थायित्व। 

निरन्तर परिवर्तन रूप है यह सृष्टि,
परिवर्तित हो जाये यदि हमारी दृष्टि,
त्याग दें, यह स्थायित्व की तलाश,
और स्वीकार करें, जो भी है आस पास। 

अपने को सीमित माना , इस भ्रान्ति को जान ले ,
निरन्तर रखें स्मरण, स्वयं को पहचान ले  ,
तो होने लगता है अहसास, कि यह स्व निर्मित अहंकार,
और इससे प्रेरित भोग और संग्रहण का यह व्यापार ,
इसी से है दुःख सुख, जीवन में व्याप्त कमियां ,
है प्रेम की कमी, अपनों के दरमियाँ। 

मूल कारण है हमारा अहंकार,
जो है मात्र भ्रान्ति , निराधार। 

"ऐसा लगता है कि यह कैसी बात है ?
अहंकार से ही तो जाना है यह अस्तित्व मैंने,
इसी से तो जाना है इस संसार ने मुझे,
यही तो हुँ मैं स्वयं ,
इसी से तो मैं जानता हुँ खुद को,
इसी से तो पहचानता हुँ इस संसार को। 
और कुछ क्षण के लिए चलो मान भी लें ,
यह मात्र भ्रान्ति है, ऐसा पहचान भी लें ,
तो फिर क्या है उपयोग इस सृष्टि व्यापार का,
कौन, क्यों, किसलिए ? खेल चलेगा संसार का?"

जो अहंकार हर क्षण अपनी और अपनों की चिंता में व्यस्त था,
सुख दुःख, नाम, धन, काम और यौवन में मदमस्त था,
कैसे बात करने लग गया देखो बड़ी बड़ी,
मानो सृष्टि चलाने की जिम्मेदारी इस पर आन पड़ी। 

अरे मूर्ख, अपने दुःख सुख से तो, परेशान है कितने दिन से,
तलाश रहा था कि, काश ! मुक्ति मिल जाये इस झंझट से,
अपनी देह के परे चिंता की , तूने मात्र देह से जुड़े सम्बन्धों की,
अपने धन, मन-मर्यादा, इच्छा पूर्ति और प्रसिद्धि की। 
अब अपने आप को पहचान, 
सृष्टि के शाश्वत परिवर्तन को जान,
इसमें स्थायी अपनी दृष्टि को पहचान,
अपने तादात्म्य को जान , सत्य को पहचान। 

इस सृष्टि से कहीं दूर नहीं जाना है,
किसी नयी परिस्थिति की तलाश में नहीं भटकना है,
अपने कर्त्तव्य से कहीं दूर नहीं होना है,
कर्त्तव्य को जानना और बेहतर पूरा करना है। 

कर्त्तव्य है सदैव वर्त्तमान में,
न भूत काल, न भविष्य में,
क्षमता जितनी, उतना है कर्त्तव्य,
क्षमता के परे, नहीं कोई दायित्व,
कर्त्तव्य तय होता है व्यक्तिगत परिस्थिति से,
उस व्यक्ति की स्वयं की मनःस्थिति से। 
ऐसे कर्त्तव्य को जो सत्यता से पूर्ण करे,
उसकी अहंकार की भ्रान्ति स्वतः ही मिटे। 

"यदि इतना ही आसान है, तो भ्रान्ति मिटती क्यों नहीं है ?
दुःख सुख से मुक्ति हमें मिलती क्यों नहीं है ?
क्यों तलाश कर रहें है हम निरन्तर आगे बढ़ने की ,
यदि शांति मिलने के लिए जरूरत है मात्र ठहरने की ?"

थक गए हो तुम , इसलिए चाहते हो ठहराव,
मरहम ढूंढ रहे हो, संसार से मिले है इतने घाव,
यह अनुकूल में स्थायित्व की तलाश,
प्रतिकूल के परिवर्तन की जगाती है प्यास,
अनुकूल या प्रतिकूल, दोनों का परिवर्तन निश्चित है,
लेकिन, तुम्हारी भूमिका अनिश्चित है,
तुम्हारा कर्त्तव्य का पालन तुम्हे शान्ति के पास लाता है शनेः शनेः,
अहंकार का शमन, दुःख - सुख का नाश होता है शनेः शनेः। 

तुम्हारे परिवर्तन तुम्हारे भीतर होते हैं ,
दृष्टि के परिवर्तन से दृश्य तुम्हारे लिए बदलते हैं ,
तुम मुक्त होने लगते हो तनाव से,
मुक्त होते हो बंधन के भाव से,
यही संसार तुम्हें घाव नहीं, पुरस्कार देने लगता है,
मन शिकायत की जगह कृतज्ञता से भरने लगता है। 
दुःख पूर्ण सृष्टि तुम्हारे लिए शान्त होने लगती है,
दूसरे के दुःख के लिए, करुणा जगने लगती है। 
कर्त्तव्य के प्रति समपर्ण बढ़ने लगता है,
संसार चक्र तुम्हारे लिए सुखपूर्वक चलता है। 
प्रतिकूल घटना होती है, दुःख घट जाता है,
सकारात्मकता बनी रहती है, शीघ्र मन शान्त हो जाता है। 

"ऐसा हो जाये, कौन नहीं चाहता है,
यह चमत्कार जीवन में कैसे घट पाता है ?"

परमात्मा की कृपा से मिल जाये सद्गुरु,
वे कृपा कर अपना ले, तब होता है नवजीवन शुरू,
निरन्तर प्रार्थना यही है गुरुदेव से,
आप हैं समर्थ, हम मगन अपनी नींद में,
निरन्तर स्वप्न के दुःख से, दुःखी - सुखी हो रहे हैं ,
आप दया कर जगा दो, यह प्रार्थना कर रहे हैं। 
ले लो हमें शरण में, हमें समर्पण भी नहीं आता। 
जन्म जन्मांतर से, अहंकार का अभ्यास, झुक भी नहीं पाता।
आप कृपा कर अपनी दृष्टि से,
मुक्त कर दो हमें स्व निर्मित अहंकार की सृष्टि से। 
आप से कर सकें प्रार्थना निरन्तर, बस इतनी कृपा कर दो,
सदैव आश्रय ले मात्र आपका, बस इतनी दया कर दो,
मन करे मात्र यही स्मरण,
ॐ गुरु शरणं , ॐ गुरु शरणं , ॐ गुरु शरणं।