Monday, January 28, 2013

क्या करें ?

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जानने से होता है बोध,
मानने से होता है विश्वास,
करने से होता है योग।

पैदा होने पर मनुष्य ने जाना स्वयं की सत्ता को- 'मैं हूँ'  ,
फिर देखा इस संसार को, और जाना 'यह है',
फिर आरोपण किया मेरेपन का,
मेरी माँ, मेरा शरीर, मेरा घर और मेरा परिवार,

'मैं' तथा 'हूँ' के मध्य अनुभव हुआ रिक्त स्थान,
जिसमे भरने लगा नित नया, अपना अहंकार,
मैं अपनी माँ का पुत्र हूँ, मैं इस परिवार का अंग हूँ,
मैं इस जात से हूँ, धर्म से हूँ, देश और समाज से हूँ,
ढूंढता गया अपने लिए अनेकानेक पहचान,
लेकिन समय के साथ कभी पहचान छोटी हुई,
और कभी स्वयं की समझ छोटी हो गयी।
हर बार बढ़ता गया रिक्तता का अहसास,
कचोटता रहा हर पहचान में संकीर्णता का भाव,
चोटिल हुआ हर परिस्थिति में मेरेपन का भाव।

शिशु जो स्वतः प्रसन्न था,
कर देता था प्रसन्न अपनी मुस्कान से परिवार को,
रुदन करता था मात्र अपनी भूख प्यास के लिए,
देखो कहाँ से कहाँ आ गया,
अब वह स्वतः दुखी है,
कारण ढूंढता है प्रसन्नता के लिए,
यदि कोई मुस्कराए तो पूछता है कि,
क्या कोई गम छिपा रहे हो,
या, व्यंग से मुस्करा रहे हो ?
पेट भरा इतना है कि भूख की पहचान नहीं,
रात दिन रस भोग से प्यास बुझती नहीं।

आरोपित कर दिया है स्वयं पर संसार इसने,
जिसे जाना था 'यह है', उस का हिस्सा खुदको माना इसने।
यात्रा थी 'मैं हूँ' से 'मैं कौन हूँ', यह जानने की,
होड़ लग गयी, 'मैं' और 'हूँ' के मध्य विशेषण भरने की।

लेकिन इस प्रपंच में उलझा हुआ मन,
दुःख और सुख के जाल में फंसा हुआ तन,
शरीर मेरा है और इसी से जुड़े सारे सम्बन्ध,
दे सत्य का आभास, कि यह सत्य ही लगे अब।

शरीर की सजातीयता है संसार से, इसीलिए संसार लगे मेरा,
निरंतर घटती घटनाओ से, भ्रम टूटे नित मेरा,
लेकिन फिर कोई संस्कार चित्त से शरीर तक जागता है,
भ्रम और साथ ही यह बंधन, शरीर से बढ़ जाता है।

इस शरीर के बिना भी रहेगा मेरा अस्तित्व,
सुनने में अच्छा लगता है, भाव अमरता का जगता है,
लेकिन इस शरीर के बिना, कैसा है, मेरा अस्तित्व,
समझ नहीं पाता, मिथ्या कल्पना सा लगता है।
जब शरीर बदल गया और स्मृति लुप्त हो गयी,
कैसा जीव, कैसी अमरता, बात ही ख़त्म हो गयी।

अब एक दूसरी बात मुक्ति की सुनते है।
मृत्यु होगी देह की, जीवन से मुक्त होते है।
इस आवागमन से छुटकारा, मुक्ति गर्भ में रहने से,
बार-बार दुःख भोगने, जीने और मरने से।

यदि दुःख से मुक्ति चाहो तो मुक्ति होगी सुख से भी,
सुख की वासना जब तक है, मुक्ति नहीं है दुःख से भी।
यह कैसी विचित्र बात है ?
वैद्य कहे, रोग से नहीं, मुक्ति होगी स्वास्थ्य से भी ?

नहीं, यह वैद्य कहे, मुक्ति होगी दुःख रूपी रोग से,
लेकिन तब, जबकि मुक्ति हो पहले सुख रूपी रोग से।
हाय! कैसी विडम्बना है ?
रोगी ने जिसे रोग समझा था, वह तो रोग है ही,
जिसे स्वास्थ्य समझा था, वह भी तो रोग ही है।

ओह! गुत्थी सुलझ गई,
जीव को लगा कि वह जान गया रहस्य को,
स्वयं में जो स्थित, वही है स्वस्थ, इस ज्ञान को।
यह ज्ञान जो सत्य था, वह भी भ्रम सिद्ध होता है,
जीव का शरीर से तादात्म्य अत्यधिक होता है।
जीव और शरीर का संबंध चित्त से जुड़ता है,
चित्त में संस्कार, अनेकानेक परतो में होता है,
हर पर्त का उघड़ना, देता है आभास,
सत्य से हुआ साक्षात्कार, हुआ परमात्मा के पास।

लेकिन इस अनंत यात्रा में ऐसा हर कदम,
मंजिल आती नहीं, जब तक बन्दे में रहता दम।
जब सारा प्रयास पूर्ण हो जाए ,
जब शरण मात्र ही बच जाए,
तो कहते है सतगुरु,
कि यात्रा होती है शुरू।

जाने हुए ज्ञान का आदर,
सुने हुए ईश्वर का विश्वास,
निरंतर कर्त्तव्य का पालन,
यात्रा को प्रारंभ कर सकता है।

शरणागति का भाव,
सतगुरु की कृपा,
परमात्मा से प्रेम,
यात्रा को आगे बढ़ा सकता है।

अपने स्वरुप का बोध,
प्रेमास्पद से प्रेम,
अनंत वर्धमान आनंद,
प्राप्त हो सकता है।

यदि इन सब को चाहे बिना,
जो है, जैसा है, जहाँ है,
वहीँ अपनी स्थिति परमात्मा में मानकर,
करने के वेग को शांत करे,
और इससे अधिक कुछ न करे।

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