उद्धार करे क्या कोई किसी का यहाँ पर,
स्वयं ही आदर न दे, विवेक को जहाँ पर ,
यदि परमात्मा की कृपा से होता उद्धार जीव का,
उद्धरेत आत्मनात्मानम से भ्रमित करें क्यों भला ?
यह जो कह रहे, समझा रहे,
स्वयं भगवान ही तो प्रगट हुए।
अपना पता प्रभु कभी, देते नहीं हैं जीव को,
लेकिन शरणागत की रक्षा में, प्रगट कर देते स्वयं को।
जीव का प्रयास तो मात्र उद्धार की चाह है,
आदर दे स्व विवेक को, मात्र यही राह है,
भगवत्कृपा के लिए प्रभु करते हैं चुनाव,
पानी में उतरो तो पार लगाते हैं नाव ,
अपना मित्र स्वयं बनो, अपने विवेक के आदर से,
अपना शत्रु मत बनो, अपने मन के शासन से।
मन की गुलामी को हम आजादी समझ लेते हैं ,
परम स्वतन्त्रता आत्म ज्ञान से, यह नहीं समझ पाते है।
लायक हैं जूते खाने के, मन में तो सब जानते हैं ,
पश्चाताप के जूते मगर, सब, चुपचाप सह जाते हैं।
दुनिया के सामने, भले बने फिरते हैं,
मौका पाते ही, दूसरे के दोष देखते हैं ,
भगवत्कृपा के साधन सभी, गुरु कृपा से मिल गये हैं,
अवसर सामने है उपस्थित, फिर भी चूक सकते हैं।
गुरु की आवश्यकता नहीं, यह स्वामी जी की व्याख्या है,
उस मार्ग के राही हम नहीं, यह बात जानने की है,
परमात्मा स्वयं मार्ग दिखलाते हैं ,
उचित स्थान पर स्वतः पहुंचाते हैं।
अब अपना ध्यान हम क्यों भटकाएं भला,
तद्विद्धि प्रणिपातेन, परिप्रश्नेन, सेवया।
प्रणाम तो प्रदर्शित भी किया जा सकता है,
प्रश्न भी, कहीँ से भी, लाया जा सकता है,
लेकिन प्रश्न स्वयं का हो, अपने मन में हो जन्मा,
शास्त्रीय प्रश्न से शिष्य का, कभी न होता है भला,
गुरु के ज्ञान और स्तर का निर्णय शिष्य कैसे कर सकते है,
सद्गुरु भगवान की कृपा प्राप्त, भगवान जैसे ही होते हैं।
जो देख सकते हो आसान बात, कि चाह न हो, इनमें से किसी की,
धन, काम, या प्रसिद्धि, तीनो पर दृष्टि न होती सद्गुरु की,
फिर तो बात आसान है, जब कहीँ मन ठहर जाये,
बात हो अध्यात्म की, स्व विवेक से समझ आये,
जो प्रश्न मन में जन्मे हो, सब उत्तर पा जाये ,
सद्गुरु स्वयं ध्यान में, तुम्हें सब बता जाये।
लेकिन बात इससे भी बने, यह होगा नहीं,
सेवा के बिना, अहंकार मिटेगा नहीं।
अहंकार के रूप अनेक, कभी समझ नहीं आते,
जितनी भी पहचान अपनी, हम संसार से पाते।
साधक परिवार भी, जब करे प्रशंसा,
कभी गुरु भी कर दे अनुशंषा ,
कभी मन में लगे कि प्रगति हो रही है,
संसार से वीतराग होने की बात बैठ रही है,
सुबह जागा यह अहंकार,
और शाम को होता बंटाधार।
सेवया का अर्थ होता है, सेवा के द्वारा,
सेवा हो कैसे ? निर्णय सेव्य के द्वारा।
प्रदर्शन सम्मान देने का, विनम्रता का करते यहीं,
मन के विरुद्ध बात सुनने का धैर्य भीतर है नहीं,
जो बात मन के विरुद्ध हो, लगे यहाँ आना व्यर्थ है,
मन कहे कि 'संसार से पार जाने में जीव स्वयं समर्थ है'।
और खुद को पता भी नहीं चलता, हो जाता है पतन,
दिन, महीने, साल व्यर्थ, सवारी करने लगता मन।
कैसे हो रक्षा स्वयं से स्वयं की,
बात तो थी स्वयं से स्वयं के उद्धार की।
स्व विवेक का आदर तो, सभी को कर लेना चाहिए,
लेकिन, इस कमजोर अहंकार को, सहारा चाहिए।
यह काले सर्प की भाँति, फुंकारता है रात दिन,
अपने भय के कारण, जहर उगलता है सारे दिन,
इस कालियनाग के, फन हैं हमारी इन्द्रियाँ ,
मन के शासन में करे, रस भोग ये सर्वदा।
इन्हे मर्दन करते है स्वयं, कृष्ण विवेक के द्वारा,
लेकिन अहंकार भरमाता, बुद्धि को मन के द्वारा।
यही शास्त्र , यही ज्ञान अपना अर्थ प्रकट करने लगते हैं ,
जब सद्गुरु की सेवा से अहंकार का मर्दन करते है,
गुरु के वचनों को ध्यानपूर्वक सुनना,
यथासम्भव पालन करने का भाव रखना,
यही तो सेवा की शुरुआत है,
गुरु संसार के पार हैं, उन्हें संसार की कहाँ प्यास है।
सद्गुरु परीक्षण करते रहते हैं शिष्य का,
याद करने मात्र से निरीक्षण कर देते है शिष्य का।
उनकी प्रेरणा ही विवेक को सबल बनाती है,
झूठे राजा बने, मन को सही राह पर लाती है।
सब कुछ होने पर भी बाहर भला क्या होता है,
यह वाकया तो सारा भीतर ही घटित होता है,
लेकिन सब कुछ न भी हो, इतना तो निश्चित होता है,
संसार में जीना पहले से आसान होता है।
तितिक्षा के अभ्यास से अनित्य का प्रभाव कम हो जाता है,
गुरु कृपा से अशुभ प्रारब्ध भी क्षीण हो जाता है।
सेवा और समर्पण से कभी अहंकार मिटे न मिटे ,
गुरु कृपा से हो भगवत्कृपा, संसार के बंधन मिटे।
संसार का बंधन यह संसार नहीं है,
यहाँ हो रहां विनिमय व्यापार भी नही है,
बंधन है मात्र, अहंकार के द्वारा, संसार का परिचय,
अहंकार के बिना तो, यह संसार ही है वासुदेवमय।
प्रणिपात हम कर सके, गुरुदेव कृपा कर दो,
प्रश्न रहे न रहे, सेवा का वर दो,
हमे नही चाह अब किसी और बात की,
कृपा कर दे, हमें शरण मिले आपकी।
ॐ गुरु शरणम् ,ॐ गुरु शरणम् ,ॐ गुरु शरणम्।