चेतना विकसित हो,
व्यर्थता अनुभव हो,
प्रतीति सघन हो,
हर सुख की कामना दुःख का कारण है।
श्रेय और प्रेय का अंतर यही है,
प्रेय की चाह और उसका अंत दुःख है,
श्रेय की प्राप्ति आनंद का स्त्रोत है।
प्रेय की निरंतरता नहीं देगी आभास दुःख का,
लेकिन यह संभव नहीं,
जीवन का अनुभव बार-बार यह सिद्ध करता है,
प्रेय नश्वर है, एक झोंका जो आता है और चला जाता है,
दुःख की निरंतरता में प्रेय की उपलब्धि,
देती है एक झलक सुख की,
और छा जाती है फिर वही उदासी।
प्रेय की निरंतरता भी मन की मूर्च्छा का क्षण है -
बेहोशी छाई रहती है, मदमस्त हो जाता है मन,
चेतना नहीं जागृत, सब कुछ हो जाता है तन,
लेकिन हर बार नश्वर सिद्ध होता है यह क्षण,
लेकिन करने लगता है, प्रतीक्षा फिर से यह मन।
बार-बार का अनुभव भी सिखा नहीं पाता है,
मन फिर से उसी, पुराने ढर्रे पर लौट जाता है,
संसार रूपी कक्ष में, चेतना घूमती है मन के वर्तुल में,
अनेक बार मोक्ष रूपी द्वार आता है नजदीक में,
ध्यान, लेकिन संसार की और लगा रह जाता है,
अंतर्यात्रा के लिए चेतना का जागरण नहीं हो पाता है।
बाहरी सम्बन्ध जो नजर आते हैं अनेक,
रचने वाला है सबको, भीतर मन मात्र एक,
अनेकों बंधन, जो मुझे जकड़ते नज़र आते हैं,
सब रचे हैं मेरे मन ने, खुद को भरमाते हैं।
मन को, ऊब होनी चाहिए इस दोहराव से,
दुःख की निरंतरता में, क्षणिक सुख के ठहराव से,
न जाने क्यों, यह भाव ठहर नहीं पाता है,
मन फिर से, इस संसार में रम जाता है।
हो सकता है, अभी जागरण का प्रथम क्षण हो,
तन्द्रा छाई हो, आलस्य का आवरण हो,
अनुभव होने लगा है, अभी परिपक्व न हुआ हो,
समय की धारा में, प्रकट तत्व न हुआ हो।
या फिर हो प्रतीक्षा किसी मांझी की,
जो मँझधार से खींच ले, ऐसे सहारे की,
कहते हैं, एकांत यात्रा है, जरूरत नहीं है साथी की,
तन है रथ, मन है घोड़े, जरुरत तो है रथी की।
जो सुना है कि बैठा है मेरे ही मन में,
उम्मीद है, प्रकट होगा किसी क्षण में,
थाम लेगा वल्गा जो, बनकर सारथि,
कौन करेगा प्रार्थना, कौन होगा प्रार्थी।
मन तो अभी मस्त है, सुख-दुःख के सागर में,
यह ज्ञान तो भरा है, बुद्धि की गागर में,
तन, मन, बुद्धि के पार है आत्मा,
कहते हैं, वो तो है स्वयं परमात्मा,
कर्मजन्य कालिमा से ढका हुआ है वह प्रकाश,
हो सकता है प्रकट वह, इसके लिए जो करे प्रयास।
पूर्व कर्मफल भोग ले और न बांधे वर्तमान के कर्म,
तो भविष्य में संभावना, है यह ज्ञान का मर्म।
कृष्ण कहते हैं, तू कर दे समपर्ण,
करता रह कर्म, और कर दे कर्मफल अर्पण।
ईसा कहते हैं, तू आ मेरी शरण,
मुक्त करता हूँ पापों से, तू कर दे समपर्ण।
बुद्ध कहते हैं, तू आशा मत कर,
होश में रहकर, मुक्ति का उपाय कर।
मुहम्मद का कहना है, एक पर विश्वास कर,
सब कुछ मिल जाएगा, अपना फ़र्ज़ अदा कर।
महावीर कहते हैं, सब कुछ पुरुषार्थ यहाँ,
नहीं कोई ईश्वर, हर व्यक्ति है समर्थ यहाँ,
विवेक से कर तू, यहाँ हर काम,
तू स्वयं ही परमात्मा, नहीं शास्त्र से काम।
सूत्र एक है, अंतर्यात्रा जरूरी है,
नश्वर है जगत, शाश्वत की खोज जरुरी है।
(Now on 5 May 2017, many of the confusions are clear and still working on my inner journey. Now I have my Gurudev and it's like walking in shadow.)
व्यर्थता अनुभव हो,
प्रतीति सघन हो,
हर सुख की कामना दुःख का कारण है।
श्रेय और प्रेय का अंतर यही है,
प्रेय की चाह और उसका अंत दुःख है,
श्रेय की प्राप्ति आनंद का स्त्रोत है।
प्रेय की निरंतरता नहीं देगी आभास दुःख का,
लेकिन यह संभव नहीं,
जीवन का अनुभव बार-बार यह सिद्ध करता है,
प्रेय नश्वर है, एक झोंका जो आता है और चला जाता है,
दुःख की निरंतरता में प्रेय की उपलब्धि,
देती है एक झलक सुख की,
और छा जाती है फिर वही उदासी।
प्रेय की निरंतरता भी मन की मूर्च्छा का क्षण है -
बेहोशी छाई रहती है, मदमस्त हो जाता है मन,
चेतना नहीं जागृत, सब कुछ हो जाता है तन,
लेकिन हर बार नश्वर सिद्ध होता है यह क्षण,
लेकिन करने लगता है, प्रतीक्षा फिर से यह मन।
बार-बार का अनुभव भी सिखा नहीं पाता है,
मन फिर से उसी, पुराने ढर्रे पर लौट जाता है,
संसार रूपी कक्ष में, चेतना घूमती है मन के वर्तुल में,
अनेक बार मोक्ष रूपी द्वार आता है नजदीक में,
ध्यान, लेकिन संसार की और लगा रह जाता है,
अंतर्यात्रा के लिए चेतना का जागरण नहीं हो पाता है।
बाहरी सम्बन्ध जो नजर आते हैं अनेक,
रचने वाला है सबको, भीतर मन मात्र एक,
अनेकों बंधन, जो मुझे जकड़ते नज़र आते हैं,
सब रचे हैं मेरे मन ने, खुद को भरमाते हैं।
मन को, ऊब होनी चाहिए इस दोहराव से,
दुःख की निरंतरता में, क्षणिक सुख के ठहराव से,
न जाने क्यों, यह भाव ठहर नहीं पाता है,
मन फिर से, इस संसार में रम जाता है।
हो सकता है, अभी जागरण का प्रथम क्षण हो,
तन्द्रा छाई हो, आलस्य का आवरण हो,
अनुभव होने लगा है, अभी परिपक्व न हुआ हो,
समय की धारा में, प्रकट तत्व न हुआ हो।
या फिर हो प्रतीक्षा किसी मांझी की,
जो मँझधार से खींच ले, ऐसे सहारे की,
कहते हैं, एकांत यात्रा है, जरूरत नहीं है साथी की,
तन है रथ, मन है घोड़े, जरुरत तो है रथी की।
जो सुना है कि बैठा है मेरे ही मन में,
उम्मीद है, प्रकट होगा किसी क्षण में,
थाम लेगा वल्गा जो, बनकर सारथि,
कौन करेगा प्रार्थना, कौन होगा प्रार्थी।
मन तो अभी मस्त है, सुख-दुःख के सागर में,
यह ज्ञान तो भरा है, बुद्धि की गागर में,
तन, मन, बुद्धि के पार है आत्मा,
कहते हैं, वो तो है स्वयं परमात्मा,
कर्मजन्य कालिमा से ढका हुआ है वह प्रकाश,
हो सकता है प्रकट वह, इसके लिए जो करे प्रयास।
पूर्व कर्मफल भोग ले और न बांधे वर्तमान के कर्म,
तो भविष्य में संभावना, है यह ज्ञान का मर्म।
कृष्ण कहते हैं, तू कर दे समपर्ण,
करता रह कर्म, और कर दे कर्मफल अर्पण।
ईसा कहते हैं, तू आ मेरी शरण,
मुक्त करता हूँ पापों से, तू कर दे समपर्ण।
बुद्ध कहते हैं, तू आशा मत कर,
होश में रहकर, मुक्ति का उपाय कर।
मुहम्मद का कहना है, एक पर विश्वास कर,
सब कुछ मिल जाएगा, अपना फ़र्ज़ अदा कर।
महावीर कहते हैं, सब कुछ पुरुषार्थ यहाँ,
नहीं कोई ईश्वर, हर व्यक्ति है समर्थ यहाँ,
विवेक से कर तू, यहाँ हर काम,
तू स्वयं ही परमात्मा, नहीं शास्त्र से काम।
सूत्र एक है, अंतर्यात्रा जरूरी है,
नश्वर है जगत, शाश्वत की खोज जरुरी है।
(Now on 5 May 2017, many of the confusions are clear and still working on my inner journey. Now I have my Gurudev and it's like walking in shadow.)