क्या कुछ लिखना है इकतालीस वर्षो के बाद,
लगता है कि जीवन का एक अध्याय पूर्णता की ओर है ?
कुछ लोग, कभी - कभी कहते है हास्य में,
कि ईश्वर ने आदमी को ४० वर्षो की आयु ही प्रदान की थी |
मुझे क्या लगता है इससे किसी को क्या फर्क पड़ता है ?
लेकिन आदमी की तलाश सारी उम्र इसी हालात की है,
कि उसके अच्छा लगने की लोग चिंता करे,
आए और पूछे कि आपको क्या अच्छा लगता है और फिर वैसा करे |
कभी कभी लगता है कि क्या मेरे भीतर भी कुछ होता है ?
या सब कुछ सिर्फ बाहर ही होता रहता है ?
लगता है कि केवल भावना है भीतर और तथ्य है सारे बाहर,
लेकिन सब कहते है कि भावुकता में कुछ नहीं रखा है |
भावना को मिले समष्टि का आधार, तो फिर बन जाती है सवेंदनशीलता,
और इससे ही खुल जाता है द्वार, मानव मस्तिष्क के विकास का |
भाव की व्यापकता से प्राप्त हो सकता है बोध इस ब्रह्माण्ड का,
और हो सकता है ज्ञान निज स्वरुप और अपनी आत्मा का |
जानना क्यों चाहता है मानव कुछ और, क्या पर्याप्त नहीं है अपना घर-परिवार,
क्यों भटकता है मन किसी और के लिए, जबकि व्यस्तता पहले से ही है अपार,
सीमित है संसाधन, ढूंढ़ता किसे यह मन, प्यास बुझती क्यों नहीं है ?
इतना सुख चारो ओर से, लेकिन आवाज कहीं ओर से आती क्यों रही है ?
कुछ ऐसा करने की तमन्ना है जो कि अब तक किया नहीं है,
घर से, ऑफिस से, कुटुंब ओर मित्रो से, मिला क्या नहीं है ?
कुछ मिलने से ज्यादा सीखने की चाह है,
पाने से ज्यादा मिटने की चाह है |
अपनी चाहत को पाने की राह पर, चलने में अभी देर है,
सात वर्ष और अभी करना यहाँ उलटफेर है |
हर दिन सिलना और हर रात उधेड़ देना,
हर दिन वही पुराना, खेल, खेल लेना |
अभ्यास से पूर्णता और फिर निवृत्ति,
ऐसी ही बनी रहे यदि वृत्ति,
संभव हो सकेगा अपने लक्ष्य को पाना,
और समय आने पर दूर चले जाना |
स्थान, समय तो हमारी भाषा है,
हमें जीवन के परे भी जीने की आशा है,
लेकिन इस जगत के विद्यालय से आगे बढ़ने की आशा,
खत्म कर देगी इस जीवन की शेष सभी आशा |