ॐ श्री परमात्मने नमः
बयालीस वर्ष हुए पूर्ण, जीवन फिर भी रहा अपूर्ण।
देह का लक्ष्य है मृत्यु और जीवन का लक्ष्य है मुक्ति,
आवागमन देह का स्वभाव, मुक्ति की क्या है युक्ति?
मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, शरीर से होते एकाकार,
ज्ञान स्वरुप परमात्मा, है अनंत, अदृश्य और अपार।
परमात्मा स्वयं ही सृष्टि का रूप धर लेते हैं,
व्यक्ति की दृष्टि में, सृष्टि को रच देते हैं।
यह संसार रचित हुआ जीवात्मा की दृष्टि में,
हो जाता ओझल पुनः, आत्मा के अनुभव में।
नित्य मिलन और नित्य विरह, परमात्मा की प्यास का अनुभव।
संसार में है परमात्मा, या परमात्मा में है संसार,
या सिर्फ है परमात्मा, और नहीं है संसार।
व्यक्ति की दृष्टि में, सृष्टि को रच देते हैं।
यह संसार रचित हुआ जीवात्मा की दृष्टि में,
हो जाता ओझल पुनः, आत्मा के अनुभव में।
नित्य मिलन और नित्य विरह, परमात्मा की प्यास का अनुभव।
संसार में है परमात्मा, या परमात्मा में है संसार,
या सिर्फ है परमात्मा, और नहीं है संसार।
है वही, जो सदा है, न आदि है, न अंत है।
जो होने से पहले है, है, रहेगा, वह अनंत है।
जो अंत हो जाये, वही तो होता है,
उसको अपना मानकर जीवात्मा रोता है।
इस दुःख के सतत क्रम में सुख का भ्रम,
छोटा सा दुःख भी मिटा दे, सारा सुख का विभ्रम।
जब सुख और दुःख के परे,
राग और द्वेष के परे,
हर्ष और शोक के परे,
मन और बुद्धि के परे।
स्वयं को स्वयं का अनुभव होता है।
स्वयं को आनंद का अनुभव होता है।
अंतःकरण से होते है, संसार के सारे अनुभव,
पर जड़ता के परे, कैसे होता है चैतन्य का अनुभव।
संसार में मन का स्वाभाविक आकर्षण,
निरंतर द्वंद में डूबा यह मानव मन।
कभी तो दुःख सुख की कड़ी से ऊब जाता है,
स्वतः ही स्वयं परमात्त्व तत्त्व में डूब जाता है।
क्या मेरे लिए उचित है, स्वयं की तलाश,
क्या जगी है मेरे मन में, तत्त्व ज्ञान की प्यास।
जब बुद्धि और भाव का चरम आता है,
मनुष्य का इस संसार में ऐसा जन्म आता है।
लगता है आखिर कब तक करूँ यह दोहराव,
सुख का भ्रम और सतत दुःख का भाव।
यह सुख है, ऐसा मानने का प्रयास,
वास्तविक सुख की कब पूरी हो आस?
कोई गुरु, महापुरुष या संकेत मिल जाता है,
जीवन का अस्तित्व मानो हिल जाता है।
जैसे देश का इतिहास, आजादी के पहले और आजादी के बाद,
ऐसे ही मनुष्य का इतिहास, गुरु मिलने के पहले और मिलने के बाद।
जब शिष्य परिपक्व हो जाता है,
सतगुरु स्वयं प्रकट हो जाता है।
ॐ शांति, शांति, शांति।
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