Saturday, November 24, 2012

प्रेम

क्या पता है तुम्हे,
देखता है वो हमें ।

जो दृष्टि है, वही तो, है वो स्वयं,
जो सृष्टि है, वही तो, है वो स्वयं,
खुद भी जो है, वही तो, है वो स्वयं,
तू भी जो है, वही तो, है वो स्वयं,
यह भी जो है, वही तो, है वो स्वयं,
वह भी जो है, वही तो, है वो स्वयं ।

ऐसा लगता है क्या तुम्हे ?
या सुना है आप्त महापुरुषों से ??
या प्रमाण माना है शास्त्र वचनों को ???
स्वयं जो है अप्रमेय, वह है प्रमाता,
किसी भी प्रमाण के अंतगर्त वह नहीं आता ।

प्रमाण है संसार के, प्रत्यक्ष, अनुभव, अनुमान सभी,
करण है अंतःकरण, करें स्मृति विस्मृति कभी ।
वह तो परे है संसार  से, सभी साधनों से,
सभी इन्दिर्यो से, देह, मन और बुद्धि से ।

दृष्टि भ्रम के चित्र में,
एक को देखो, दूसरा हो जाता है ओझल,
इसी तरह जीव की दृष्टि में, संसार दिखे,
परमात्मा है ओझल ।

जो कुछ दिखता, सुनता और अनुभव होता,
संसार का अनुभव, सांसारिक ही होता ।
इन इन्द्रियों के पीछे मन और बुद्धि,
अहंकार से परिचालित, अंतःकरण की वृत्ति ।

यह सब यदि दीखते है, तो कोई देखने वाला भी तो है,
देखने वाले को कोई नहीं, देखने वाला कहीं भी है ।
सर्व व्याप्त परमात्मा ही, सब जगह देखने वाला है,
दृष्टा ही स्वयं, दृश्य को रचने वाला है ।

स्वयं की अभिव्यक्ति ही, तो है यह संसार,
लेकिन स्वयं को आवृत्त, कर लेता अहंकार,
अहंकार ही चेतना को सीमित कर देता है,
एक को विभक्त कर, मैं, तू, यह, वह रच देता है ।
यह विभक्ति ही तो, भक्ति के विपरीत है,
जीव के दुःख का कारण, यही जगत की रीत है ।
भक्ति में जीव और परमात्मा एक हो जाते है,
संसार में अहंकार से जो अनेक हो जाते है ।

अहंकार से आवृत्त, मायाबद्ध जीव,
ईश्वर कृपा से मनुष्य शरीर पाता है ।
गुरु कृपा से, शास्त्र के वचनों से,
यदि ईश्वर पर विश्वास कर पाता है ।
नहीं मांगता है प्रमाण उनके होने का,
श्रद्धा और समर्पण से यदि झुक जाता है ।
स्वयं प्रकट हो जाते है परमात्मा,
प्रभु कृपा से आनंद, दर्शन और प्रेम पाता है ।


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