अगर तुम चाहते हो,
एक मुक्त जिंदगी
- काल गणना का हर साधन मिटा दो,
- दुनिया के सारे कैलेण्डर हटा दो,
- घड़ियों को बीते कल की यादें बना दो,
- और हर घंटाघर की मंजिल गिरा दो।
फिर रहेगा
सिर्फ कल, आज और कल
एक दिन
होगा बराबर
एक घंटे, मिनट और सेकंड के।
आदमी स्वतन्त्र होगा,
समय का न दास होगा,
वक्त के बंधन न होंगे,
वक्त का इंतज़ार न होगा,
न वक्त गुजारेगा आदमी,
न ही वक्त गुजारेगा आदमी को,
खुले आसमां में उड़ेगा आदमी,
मगर न भूलेगा जमीं को।
साल, महीने और सप्ताह न होंगे,
किन्तु,
जन्म और मृत्यु होते रहेंगे।
काल गणना का माध्यम जीवन ही होगा
मूल्याङ्कन मृत्यु के बाद ही होगा
अपने अतीत के लिए
मनुष्य को एक दिन से अधिक
पछताना न होगा
एक दिन से अधिक के लिए
भविष्य का तनाव
सहना न होगा।
लेकिन यह दास.
पीढ़ियों से गुलाम
ऐसी मुक्ति पाना पसंद नहीं करेगा
रेंगने का आदी
समय का कीड़ा
उड़ने का मौका बेकार खो देगा।
सिर्फ वही नहीं,
विश्व की मेधा
जिसे सम्मानित किया जाता है,
समय-समय पर
समय के बिना
इस जहाँ पर
हुकूमत कैसे कर पाएगी
इसीलिए यह बदलाव सह न पायेगी।
आदमी को
समय का डर दिखाकर
पंगु बना दिया गया है
उसकी मानसिक व शारीरिक
क्रियाओं को सीमित कर दिया गया है
वर्षों की मेहनत के नाम पर
सभ्यता के आवरण में
बंधनों को जकड़ दिया गया है
भविष्य को खुशनुमा बनाने के लिए,
वर्तमान का मन मसोस दिया गया है
अतीत की रक्षा और
उससे सीखने के नाम पर
आज को मसल कर दबा दिया गया है।
मगर परिणाम क्या रहा है
अभी भी बगावत के स्वर उठ रहे हैं
अब भी कसमसा रहे हैं
विद्रोही इन जंजीरों के जाल में
पर भला इन्हें कौन समझाए?
सैंकड़ो वर्षों के बंधन कब
कुछ वर्षों में टूट पाए है
हाँ,
जो चिंगारियाँ उठ रही है
वो भड़ककर शोला जरूर बनेगी
आज नहीं तो कल
आने वाली पीढ़ियों को
एक खुला आकाश उड़ने के लिए
और
एक सुदृढ़ जमीं रहने के लिए
बनाने का अवसर देगी।
उस वक्त जरुरत होगी
जहाँ में एक ऐसे इंसान की
वर्तमान के शैतान और
भविष्य के भगवान की
जो
लपटों का रुख मोड़ दे
और एक-एक कर सारे बंधन तोड़ दे
बना दे स्वतन्त्र संसार
न देश काल की सीमा हो,
न हो व्यथा दुत्कार।
इस स्वप्न को
यथार्थ में कौन बदलेगा
सर्वहारा का मसीहा
या
भारत का राजपुत्र
अथवा
कोई विज्ञान-पुत्र
समय ही बताएगा।
एक मुक्त जिंदगी
- काल गणना का हर साधन मिटा दो,
- दुनिया के सारे कैलेण्डर हटा दो,
- घड़ियों को बीते कल की यादें बना दो,
- और हर घंटाघर की मंजिल गिरा दो।
फिर रहेगा
सिर्फ कल, आज और कल
एक दिन
होगा बराबर
एक घंटे, मिनट और सेकंड के।
आदमी स्वतन्त्र होगा,
समय का न दास होगा,
वक्त के बंधन न होंगे,
वक्त का इंतज़ार न होगा,
न वक्त गुजारेगा आदमी,
न ही वक्त गुजारेगा आदमी को,
खुले आसमां में उड़ेगा आदमी,
मगर न भूलेगा जमीं को।
साल, महीने और सप्ताह न होंगे,
किन्तु,
जन्म और मृत्यु होते रहेंगे।
काल गणना का माध्यम जीवन ही होगा
मूल्याङ्कन मृत्यु के बाद ही होगा
अपने अतीत के लिए
मनुष्य को एक दिन से अधिक
पछताना न होगा
एक दिन से अधिक के लिए
भविष्य का तनाव
सहना न होगा।
लेकिन यह दास.
पीढ़ियों से गुलाम
ऐसी मुक्ति पाना पसंद नहीं करेगा
रेंगने का आदी
समय का कीड़ा
उड़ने का मौका बेकार खो देगा।
सिर्फ वही नहीं,
विश्व की मेधा
जिसे सम्मानित किया जाता है,
समय-समय पर
समय के बिना
इस जहाँ पर
हुकूमत कैसे कर पाएगी
इसीलिए यह बदलाव सह न पायेगी।
आदमी को
समय का डर दिखाकर
पंगु बना दिया गया है
उसकी मानसिक व शारीरिक
क्रियाओं को सीमित कर दिया गया है
वर्षों की मेहनत के नाम पर
सभ्यता के आवरण में
बंधनों को जकड़ दिया गया है
भविष्य को खुशनुमा बनाने के लिए,
वर्तमान का मन मसोस दिया गया है
अतीत की रक्षा और
उससे सीखने के नाम पर
आज को मसल कर दबा दिया गया है।
मगर परिणाम क्या रहा है
अभी भी बगावत के स्वर उठ रहे हैं
अब भी कसमसा रहे हैं
विद्रोही इन जंजीरों के जाल में
पर भला इन्हें कौन समझाए?
सैंकड़ो वर्षों के बंधन कब
कुछ वर्षों में टूट पाए है
हाँ,
जो चिंगारियाँ उठ रही है
वो भड़ककर शोला जरूर बनेगी
आज नहीं तो कल
आने वाली पीढ़ियों को
एक खुला आकाश उड़ने के लिए
और
एक सुदृढ़ जमीं रहने के लिए
बनाने का अवसर देगी।
उस वक्त जरुरत होगी
जहाँ में एक ऐसे इंसान की
वर्तमान के शैतान और
भविष्य के भगवान की
जो
लपटों का रुख मोड़ दे
और एक-एक कर सारे बंधन तोड़ दे
बना दे स्वतन्त्र संसार
न देश काल की सीमा हो,
न हो व्यथा दुत्कार।
इस स्वप्न को
यथार्थ में कौन बदलेगा
सर्वहारा का मसीहा
या
भारत का राजपुत्र
अथवा
कोई विज्ञान-पुत्र
समय ही बताएगा।
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