अपने-अपने, अपने राम,
स्वीकारो सबका प्रणाम।
जब अपनी लीला हेतु धरा पर प्रकट हुए थे राम,
कौन पहचान पाया? किसका हुआ पूर्ण काम।
अनंत प्रतीक्षा कर रहे थे, अहिल्या और शबरी,
भक्त जनो के प्रेम हेतु, ही यहाँ लीला करी।
मारीच जैसे राक्षस भी बने लीला के सहचर,
राम के समक्ष पुनः लौट आया निशाचर।
विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा हेतु, गए राम लक्ष्मण,
ताड़का और सुबाहु मारे गए, ख़त्म हुआ रण।
मायावी मारीच जान बचाकर, भागा वहाँ से,
लेकिन मारीच का भाग्य, जागा यहाँ पे।
एक बार फिर चला आया मारीच दंडकारण्य में,
चौदह वर्ष वनवास हेतु राम थे जहाँ अरण्य में।
धारण किया पशु रूप, दो राक्षसों के साथ,
राम ने छोड़ा बाण, मारीच भागा समुद्र के पास।
एक बार फिर, मारीच का भाग्य जागृत हुआ,
त्याग सारे दुष्कर्म, राम भक्त तपस्यारत हुआ।
प्रभु लीला में शूर्पणखा का हुआ आगमन,
लक्ष्मण से हुई दीक्षित, काट दिए श्रवण।
नासिका कटी, अहंकार हुआ नष्ट,
रावण के कुलसहित नाश का परामर्श।
सीता हरण की युक्ति और सौंदर्य का लालच,
रावण अपने नाश से, अब नहीं सकेगा बच।
रावण ने कहा मारीच को, स्वर्ण मृग बन जाओ,
सीता के मन में, नारी सुलभ लालसा जगाओ।
मारीच ने समझाया रावण को,
यह आमंत्रण है लंका के विनाश को,
लेकिन विनाश काले विपरीत बुद्धि,
नहीं समझा रावण अहंकारी दुर्बुद्धि।
उल्टे मारीच को ही मारने चला,
अब मारीच को ऐसा लगने लगा,
इस राक्षस के हाथों मरने से बेहतर,
मैं मरूँ प्रभु राम के हाथों वहाँ जाकर।
अनुपम सुंदरता, मायावी बन गया स्वर्ण मृग,
ठहर गयी सीता, देखते रहे अपलक दृग,
जाओ प्रिय राम यह मृग जीवित या मृत ला दो,
मेरा मन हुआ आकर्षित, यह इच्छा पूरी कर दो।
राम ने देखा माया मृग, लीला अपनी करने लगे,
कभी पास कभी दूर, मृग के पीछे दौड़ने लगे।
समझाया लक्ष्मण को, न रहे सीता को एकांत,
राक्षस फिर रहे वन में, अब वातावरण अशांत।
माया मृग मारीच दूर दौड़ जाता,
फिर ठहर कर पीछे मुड़ जाता,
अपने इष्ट प्रभु राम को निहारता,
झाड़ी की ओट में छिप जाता।
आज मारीच का मन प्रमुदित है,
प्रभु को पाकर प्रफुल्लित है,
जीवन में यह अनुपम अवसर है,
मन चकित, व्यथित, आकर्षित है।
कितना दूर चला आया, सीता का ध्यान आया,
राम ने क्रोधित हो, अब मृग पर तीर चलाया।
हुआ लक्ष्य भेद, मारीच ने प्रकट की निज देह,
राम का स्मरण किया, मन में बरसा स्नेह।
लेकिन रावण के प्रति, अपना वचन स्मरण रहा,
हा सीते! हा लक्ष्मण! की पुकार करने लगा।
राम को तुरंत ही राक्षस का छल प्रकट हो गया,
लक्ष्मण पीछे आयेगा, अब संकट आ गया।
लक्ष्मण मिले राह में, पहुँचे कुटिया के पास,
सीता बिना सूनी कुटिया, हो गए राम उदास।
जब सीता के मन में आया माया मृग का लोभ,
परिणाम हुआ सीता और राम का वियोग।
हमारी आत्मा ही है सीता, प्रभु को चाहती सदा,
किंतु माया के लोभ से, मिलन नहीं होता यहाँ।
माया मृग मारीच खेलता रहता हमारे जीवन में,
कभी प्रकट, कभी लुप्त, भरमाता रहता हमें।
भटकाता रहता हमारे मन को, दौड़ते रहते हम,
ठहर नहीं पाता. माया के प्रति आकर्षित मन।
यदि मन इष्ट राम की भक्ति में लीन हो जाए,
मारीच के मन की तरह यह ध्यान में लग जाए।
तब निश्चित ही प्रभु राम, कर देंगे लक्ष्य संधान,
सम्पूर्ण अस्तित्व हमारा, करे राम को प्रणाम।
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