Wednesday, July 27, 2011

जीवन - क्रम

आखिर ऐसा क्यों होता है ? बार-बार हम दोहराते हैं ,
फिर उसी अफसाने को
चाहते है कि दूर चले जाएं, पर लौट लौट कर आते हैं .
वही गलतियाँ वही कहानी,
नहीं होती है आस पुरानी .

लगता है इस बार नहीं, होगा वह दोहराव,
और लगाता आस वही मन, फिर से पाता घाव .
कितनी बार घूमता है यह चक्र हमारे जीवन में,
पात्र बदलते, समय बदलता, नया सा लगता सब हमें .

सब यही कहते हैं कि तुम दिल से न लगाओ,
भुला दो पीछे की बातो को, जीवन को आगे बढाओ .
लेकिन होता हर बार वही, बस समय की देर है,
क्या तुम्हें ऐसा लगता है, कि यह दृष्टि का फेर है ?

तो क्या करें, क्या जीवन चक्र कभी रुकता है ?
हर घटना से ही, इंसान कभी तो उबरता है .
लेकिन क्या सीखता है, वह अपने पुराने अनुभव से,
क्या यह जीवन सिर्फ दोहराव में ही गुजरता है ?

तुम क्या चाहते हो कि हर दिन कुछ नया हो जाये,
रिश्ते निभाने से बेहतर है कि रिश्ते ही नए बन जाएं ?
लेकिन रिश्ते क्या बन जाते है एक दिन में ?
जीवन गुजर जाता है रिश्तो को सींचने में .

ऐसे में यदि रिश्ते बोझ बन जाएं,
मन उन्हें छोड़ने पर डट जाएं,
तो दिमाग का क्या काम है ?
रिश्ते तो भावना का नाम है .

इसीलिए मित्रता को बचाना,
इसे कभी रिश्ते का जामा न पहनाना .
रिश्ते तो समय के साथ बोझ बन जाते है,
बोझ उठाने के लिए मित्र ही काम आते है .

मित्रता को न निभाना,
न आजमाना,
बस अनायास ही जो हो जाये,
उसे स्वीकार करते जाना .

मित्रता वरदान है ईश्वर का, इसका कोई मूल्य नहीं .
यह अनायास है, कोई रिश्ता इसके तुल्य नहीं ..

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