क्या चाहता है मन ?
क्यों भागता फिरता है ?
कभी याद करता है कोई पुरानी बात,
याद आ जाती है, समय की मारी लात ।
कभी इसे लगता है कि क्या होगा आगे,
भविष्य की चिंता करते-करते, वर्तमान भागे ।
समय निकलता जाता है
मुठ्ठी से फिसलती रेत की तरह,
और मन की बुद्धि से चलती रहती है जिरह।
लगता यही है कि समय निकल जायेगा,
और आदमी सोचता - पछताता रह जायेगा।
यह भी तो सब जानते हैं,
पूछो तो कहेंगे कि मानते हैं,
लेकिन व्यवहार में यह नजर नहीं आता है,
सोचते - सोचते वक़्त निकला जाता है।
क्या तुमको लगता है कि यह किसी और की कहानी है ?
अपनी गिरहबान में झांको, तुम्हारी जबानी है।
कहा तो सब तुमने है, मैंने तो बस लिखा है,
तुम्हारे मन को पढ़ा है, जुबां को सुना है।
तुम्हारा दिल भी तो चाहता है कि जीवन में आनंद हो,
घर में खेले कृष्ण, पत्नी यशोदा और पति नन्द हो।
बृज में गुजरे जीवन, संग में हों राधिका,
बंसी की मधुर धुन पर, माखन खिलाये गोपिका।
रास मंडल सजा हो, नृत्य में मन लगा हो,
इन्द्रियों की कोई मांग नहीं, बस मन मस्ती में रमा हो।
जीवन में आनंद की, तलाश क्यों पूरी होती नहीं,
वर्तमान पर ध्यान नहीं, और भूत भविष्य में कुछ है नहीं।
देखो ठहर कर अपने जीवन को,
कभी कभी गुजारे उन मस्ती के पलों को,
न भूत भविष्य का ख्याल था,
न गम था, कोई मलाल था,
मन खो गया था बस वर्तमान में,
जो सामने था, उसका ही ख्याल था।
इन पलों में ठहर जाता जीवन, तो कितना अच्छा होता,
मस्ती होती मन में, और आँखों में कोई सपना न होता
नींद आती ऐसी गहरी कि कुछ याद न रहता,
सुबह की अलसाई आँखों में, बस प्यार ही बाकी होता।
आनंद के है दो ही स्रोत -
क्षणिक आनंद मिलता है अहंकार के तृप्त होने से,
इन्द्रियों की मांग पूरी होने पर, गुजरे कुछ क्षणों में।
या फिर स्थाई आनंद मिलता है प्रेम में,
प्रेम पात्र जब तक रहे स्थाई , तब तक के समय में।
मीरा कहती है -
ऐसो वर मैं न वरु, जो कबहू कि मर जाए,
मैं वरु गोविन्द को, मेरो चुडलो अमर हो जाये।
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