Wednesday, December 18, 2013

मुक्ति

सांसारिक सुख की वर्षा में,
कुछ देर के लिए भूलने का प्रयास,
अपने दुःख को या अपने आप को,
पुनः पुनः लौटा देता है,
व्यक्ति को वही पर,
उदासी छाने लगती है,
शाश्वत बेचैनी एक बार फिर,
घेर लेती है। 

अपने मन में याद करता है,
बीते हुए अच्छे पलों को,
एक मुस्कराहट छा जाती है,
मन में जाग जाती है एक उमंग,
मन खोने लगता है, यादों में,
लेकिन फिर कुछ देर बाद,
पुनः आ जाता है वर्तमान में,
नहीं - नहीं,
फिर खो जाता है किसी और पुरानी याद में,
या कोई आशंका का सर्प फुँकार उठता है,
भीतर कोई तुलना या ईर्ष्या का दावानल,
प्रज्ज्वलित हो उठता है,
और शुरू हो जाता है एक नया दौर,
शिकायत का,
अथवा अपने दुर्भाग्य को कोसने का। 

कभी वर्तमान पर ध्यान चला जाता है,
कोई भी तो कष्ट नहीं है अभी इस समय,
अतीत या भविष्य में ही हैं सारे दुःख,
वर्तमान में है दुःख का अभाव,
यही तो है सच में सुख,
जिसे कहते है आनंद । 

लेकिन ध्यान वर्तमान में ठहरता नहीं,
दुःख दूर करने का प्रयास शुरू हो जाता है,
खुद को अच्छा बुरा समझाता है,
व्यक्ति स्वयं और आस पास के सभी लोग,
तथाकथित अपने है जो,
मित्र, साथी और सम्बन्धी, परिवार जन और कुटुम्बी,
कहते हैं कि हमें क्या है,
हम तो तुम्हारे भले के लिए कह रहे है,
भविष्य में समझ आएगा तो पछताओगे। 
ऐसे में प्रश्न यही कि,
अपने कर्त्तव्य का पालन कैसे होगा। 

कर्त्तव्य का पालन सभी करना चाहते हैं ,
पर कर्त्तव्य का निर्धारण नहीं कर पाते हैं। 
कर्मफल के आधार पर निर्धारण,
या अपनों की इच्छा के आधार पर निर्धारण,
या अपनी इच्छा के आधार पर निर्धारण,
या अपने अहंकार के आधार पर निर्धारण,
कुछ भी कर्त्तव्य को नहीं बतलाता है। 
कर्त्तव्य तो व्यक्ति की स्थिति और 
प्रारब्ध से प्राप्त परिस्थिति के अनुसार,
निर्धारित होता है। 
अंतिम लक्ष्य सब का है भगवत प्राप्ति,
कर्त्तव्य का उद्देश्य सदैव,
करने के वेग की शांति। 
दूसरों के हित के लिए काम करें ,
ऐसा प्रयास देता है शांति। 

लेकिन तन और मन को होने लगती है थकान,
अतः मन भी चाहता है कुछ मनोरंजन,
अहंकार से उत्पन्न होते है विकार,
जो करते है सांसारिक सुखों में आकर्षित,
तर्क जाग उठता है,
संसार परमात्मा ने बनाया है आनंद के लिए,
प्रारब्ध के अनुसार सभी पाते हैं सुख दुःख,
अर्थ और काम से दूर हों किसलिए ?
त्याग के पश्चात, अपने भाग का उपभोग,
भला अनुचित कैसे होगा ?
सांसारिक सुखों को पाने का प्रयास,
भला अनुचित क्यों कर होगा। 

भगवत्प्राप्ति 
है परम आनंद कि स्थिति,
इसे पाने के बाद कोई आकर्षण नहीं रह जाता है,
इस संसार के सुखो में कोई रस नहीं बच जाता है,
तम , रज और सत्व, तीनो गुणो के परे,
है आनंद का महासमुद्र, 
जिसे पाने के लिए जीव  है बेचैन, उदास, लालायित,
लेकिन उससे पहले जीव को संसार के सुखो से वैराग चाहिए,
क्योंकि 
त्याग ना टिके रे वैराग बिना, करिये कोटि उपाय जी। 

प्रयास पूर्वक त्याग से हल नहीं होता है,
कुछ मदद मिलती है,
पुरानी आदतो को छोड़ने के लिए,
सुख भोग के समय विचार पूर्वक जागरण,
देता है आकर्षण से मुक्ति,
लेकिन दृढ अभ्यास है, पिछले अनेक जन्मों का,
स्वेच्छा से, बलात और अनायास भोगे हुए सुखों का,
स्वप्न की भाँति जीते रहने का,
कि जागरण नहीं रह पाता है हर समय। 

विषय चिंतन के समय से ही जागृति क्षीण होने लगती है,
आसक्ति मन पर छा जाती है, कामना प्रबल होने लगती है,
ऐसे में सुख भोग में जागरण रहता नहीं,
और वैराग्य की अग्नि प्रज्जवलित होती नहीं,
मान्यता से उत्पन्न हुआ दुःख,
माने हुए सुख के द्वारा भुला दिया जाता है,
कुछ देर के लिए मन प्रसन्न हो जाता है,
और अगले दुःख के लिए तैयार हो जाता है,
जैसे कोई श्रमिक बीड़ी के धुएँ में थकान मिटाकर,
पुनः काम में लग जाता है। 

इस दुःख से दग्ध मन पर संसार के सुख की बूँद,
गर्म तवे पर छन्न से गिरने वाली बूँद की तरह,
लुप्त हो जाती है,
कभी सुख वर्षा भी हो जाये तो, 
निरंतर जलती दुःख की आग बुझ नहीं पाती है। 
फिर भी, जैसे
चन्द्रमा की उपस्थिति में गिरने वाली ओस की बूंदे,
तन मन को शीतल कर देती है,
वैसे ही सदगुरु की उपस्थिति में, सत्संग में,
आनंद की वर्षा हो जाती है। 
लेकिन दुःख की आग को सदा के लिए मिटाना है तो,
गुरु से प्रार्थना यही कि,
आपकी कृपा से मिले, विषय चिंतन रुपी ईधन से मुक्ति,
दुःख अग्नि हो जायेगी शान्त, एक मात्र राह है शरणागति। 


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