Thursday, October 17, 2013

एक ही आस

मैं शरीर नहीं हूँ।
आता है समझ में कि मेरा शरीर बदलता रहा,
बचपन, जवानी और प्रोढ़ावस्था में,
मैं तो नहीं बदला, मैं तो वही हूँ।

मैं सुक्ष्म शरीर भी नहीं हूँ।
जब मुझे दिखाई देते हैं,
मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार,
देखने वाला रहता है इनके पार ,
जो देता है दिखाई, वह स्वयं नहीं हो सकता,
इसीलिए सुक्ष्म शरीर मेरा अस्तित्व नहीं हो सकता।

कारण शरीर कहते हैं कि
स्वभाव है, अज्ञान है, प्रकृति है,
इसके विषय में समझने से लाभ कम,
अधिक भ्रान्ति है।
अतः जानने वाला यह नहीं हो सकता,
इतना समझ लेना ही काफी है।

जो जानता है,
जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति को,
जो देख सकता है इन सभी को,
जिसको देखना संभव नहीं,
जिसके लिए सभी दृश्य है,
क्या है स्वयं दृष्टि वही,
दृष्टा जैसा कोई नहीं, जानने वाला भी नहीं,
उसमे स्थित होने जैसी कोई स्थिति भी नहीं,
शुन्य यदि नहीं भी हो, कोई सीमा भी नहीं।
असीमितता का बोध होता है,
सर्वज्ञता या सर्वशक्तिमता का नहीं।

यदि मन के प्रति नहीं है साक्षी भाव,
मन विषय-चितन से बढ़ जाता है, आसक्ति की ओर,
आसक्ति से बढ़ जाता है, कामना की ओर,
कामना से उत्पन्न होता है लोभ, अंततः क्रोध,
क्रोध से संमोह, स्मृति लोप, अंततः विनाश।
यदि साक्षी भाव बना रहे,
विषय चिंतन, आसक्ति या कामना के स्तर से,
संभव है मन का पुनः शांत अवस्था में लौट जाना,
साक्षी के रूप में मन की स्थिति को देख पाना,
लेकिन इसके बाद प्रकृति का है साम्राज्य,
विनाश के बाद ही जाग सकता है पश्चाताप,
परिणाम हो सकता है साधना के प्रति आग्रह,
और दृढ हो सकता है साक्षी भाव।

लेकिन यह मन क्यों चाहता है,
वासना के भंवर में डूबना बार बार,
दुःख के निश्चित अंत की ओर बढ़ता है बार बार,
स्वयं की नज़रों में होता है शर्मसार।
क्यों चाहता है देखे और आजमाए हुए,
अनेको बार ठोकर खाए हुए,
उन्ही दुष्चक्रो से गुजरना बार बार ?
लगता है कि एक अदम्य आकर्षण है दुःख में,
जो आता है सुख का नकाब  ओढ़ कर। 
लोभ और संग्रह परिणाम है कामनापूर्ति का,
और क्रोध परिणाम है कामना अपूर्ति का,
दुःख है एक सा परिणाम दोनों का। 

संयोग से प्राप्त प्रत्येक सुख,
है मात्र एक आभास,
क्योंकि समय के चक्र में,
वियोग भी खड़ा है पास। 
वियोग की निश्चितता कर देती है दुःख को भी निश्चित,
नहीं रहने देती है, इस मर्त्य जगत में, कभी निश्चिन्त। 

समझ सब आने पर भी क्या कुछ भी समझ नहीं आता है,
चित्त में संग्रहित संस्कार, आदत ही बन जाता है। 
कौन चाहता है? संसार के सुखों में  बने रहना,
निश्चित दुःख की राह में आगे बढ़ते रहना,
"मन" जो कि संसार का प्रतिरूप है,
अमन होना ही स्वयं का स्वरुप है। 

लगता है कि चुनाव कुछ कठिन नहीं है -
दुःख और सुख दोनों ही एक समान है,
अतः साक्षी भाव ही एक मात्र समाधान है। 
लेकिन यह भी सदा कहाँ रह पाता है,
ऐसे में मुझे तो बस एक मार्ग नजर आता है,
ले लो शरण अपने गुरु या ईश्वर की,
कृपा जो करते है सदा अहैतुकी। 

समर्पण ही यात्रा की शुरुआत करता है,
और यही यात्रा को आगे बढाता है,
और इसी से हो जायेगा यात्रा का समापन,
गुरुदेव की कृपा से मिलता रहे मार्गदर्शन। 
अपने गुरु के दर्शन, क्या मात्र शरीर के दर्शन हैं,
परमात्मा भी प्रकट होने के लिये लेते आश्रय है,
योगमाया के बिना संसार प्रकट नहीं होता है,
गुरु के रूप में ही परमात्मा का दर्शन यहाँ होता है। 
जो सर्वव्याप्त है, वह तो स्वयं में भी मिल जायेगा,
जब गुरु की कृपा होगी, खुद ही प्रकट हो जायेगा। 

मेरे गुरु ने कब चाहा कि कोई आये उनके पास,
करो जी भर कर संदेह, नहीं कहा, करो विश्वास,
जब स्वयं का संदेह श्रद्धा में परिणत हो जाता है,
प्रत्यक्ष ही स्वयं, प्रमाण बन जाता है। 
भगवत प्राप्ति और आत्म-ज्ञान अच्छे शब्द लगते है,
दुःख मिट जाये सदा के लिए, अतः करणीय लगते है,
यह करने से होगा नहीं और बिना किये होगा नहीं,
समर्पण ही है करने को, इसके सिवा कुछ भी नहीं,
शेष सभी मात्र कृपा से, संभव होता है,
मेरे अनुभव में तो समर्पण भी कृपा से ही होता है। 

अतः गुरुदेव कृपा करो, अवश मुझे रहने दो,
चरणों का दास बना लो, सृष्टि का साम्राज्य रहने दो। 
दृष्टि ही प्रकाश है, नित्य का अनुभव बन जाये,
जो क्षण का मोक्ष मिलता है, सदा का अनुभव बन जाये। 
लेकिन मुझे तो नहीं पता, कि क्या करूं प्रयास,
प्रयोग कर रहा निरंतर, आप सदा रहो पास। 
आपका साथ के अतिरिक्त कोई मांग नहीं,
एक ही आस गुरुदेव की, दूजी कोई आस नहीं।

No comments:

Post a Comment