Saturday, August 22, 2015

व्यर्थ है मुक्ति की तलाश !

मुक्ति कौन चाहता है इस संसार से,
व्यक्ति चाहता है मात्र अपने दुःख से मुक्ति। 

जीवन चलता रहता है सुख दुःख की श्रृंखला में,
कभी ऐसा पीड़ा का अनुभव होता है कि सुख व्यर्थ दीखने लगते है,
उत्पन्न हो जाता है प्रश्न,
कि क्या यह सारा सुख स्वप्न मात्र था ?
और शुरू हो जाती है 
पीड़ा अथवा दुःख से मुक्ति की तलाश। 

जीवन शांत मंथर गति से गुजर सकता है,
लेकिन दूसरे को देख कर जागने लगता है,
ईर्ष्या अथवा प्रतिस्पर्था का भाव,
अनुकरण करने या अनुयायी बनाने की इच्छा,
महत्वाकांक्षा बढ़ती जाती है और 
जो प्राप्त है वह अपर्याप्त होता जाता है,,
बाहर समृद्धि और भीतर खालीपन बढ़ने लगता है,
और शुरू हो जाती है किसी दिन -
महत्वाकांक्षा या दुःख से मुक्ति की तलाश। 

पूर्व जन्म के किसी संस्कार के कारण 
सांसारिक सुख व्यर्थ दीखने लगते है,
और मन साधना करना चाहता है,
लेकिन संसार आ बैठता है विचार के माध्यम से,
बस जाता है मन के भीतर ,
दुखी होने लग जाता है साधक अपने ही मन से,
और शुरू हो जाती है,
विचार या दुःख से मुक्ति की तलाश। 

सब पा लेता है व्यक्ति जो चाहा था,
स्वास्थ्य, साधन, सम्पत्ति, परिवार। 
प्रारब्ध के अनुसार जीवन सुख से भर जाता है,
लेकिन सताने लगता है प्राप्त के खोने का भय,
अपनी मृत्यु तथा अपनों की मृत्यु का भय,
भविष्य में हो सकने वाले दुःख का भय,
और शुरू हो जाती है,
भय या दुःख से मुक्ति की तलाश। 

सांसारिक सम्बन्धो में खोजता रहता है व्यक्ति प्रेम,
हर बार संदेह उठता है मन में,
अपने प्रेमास्पद पर अथवा उसकी अनुपस्थिति पर,
कभी प्रेम का पात्र बदल जाता है,
कभी परिस्थिति बदल जाती है,
जीवन आगे बढ़ जाता है,
प्रेम प्रतीक्षा करता रह जाता है,
उदय होता है कहीं मन के किसी कोने में 
हताशा या निराशा का भाव,
और शुरू हो जाती है,
निराशा या दुःख से मुक्ति की तलाश। 

व्यक्ति जागरूक होकर कर्त्तव्य का पालन करना चाहता है,
प्रारब्ध के वश मिली हुई परिस्थिति में,
स्वयं, परिवार, कुटुंब या राष्ट्र के प्रति 
कर्त्तव्य पूरा नहीं कर पाता है,
ऐसा स्वयं के प्रति दोष मन में जाग उठता है,
मन में असमर्थता का दुःख जागने लगता है,
और शुरू हो जाती है,
दोष या दुःख से मुक्ति की तलाश। 

स्वयं को मिला हुआ साधन सुख,
या पूर्व जन्मो के संस्कार,
या प्रारब्ध अथवा पुरुषार्थ से मिला संग साथ,
व्यसन या अवगुणो को जन्म देता है,
परिणाम होता है शारीरिक अथवा मानसिक पीड़ा,
और शुरू हो जाती है,
व्यसन या दुःख से मुक्ति की तलाश। 

सब पाकर या अत्यल्प भी पाकर,
व्यक्ति को होता है अपने शरीर, परिवार एवं साधन का अहंकार,
बढ़ता जाता है कीर्ति या सम्मान का भाव,
अत्यंत नाजुक अहंकार चोटिल हो उठता है,
अकारण या अनेकानेक कारणों से,
ला देता है मन में दुःख का सैलाब,
और शुरू हो जाती है,
अहंकार या दुःख से मुक्ति की तलाश। 

यह तलाश ले आती है,
गुरु या परमात्मा की शरण में,
लेकिन मुक्ति की तलाश तो पूरी हो जाती है समता में,
समत्वं योग उच्यते। 

अरे, तो फिर व्यर्थ क्यों है मुक्ति की तलाश?
क्योंकि यह शुष्क धरातल है,
मुक्ति से कुछ मिलता नहीं,
वरन मन से संसार चला जाता है,
और जो था, है, वही रह जाता है। 

आनंद है प्रेम में,
भक्ति में, शरणागति में,
क्या फर्क पड़ता है 
यदि कुछ जन्म और हो जाये ?
यह परमात्मा का ही रचा हुआ संसार,
जहाँ उनके अतिरिक्त कोई और तत्त्व है ही नहीं,
उस संसार से मुक्ति की चिंता क्यों की जाए ?

परमात्मा प्रकट होते है गुरु के रूप में,
प्रदान करने को अपनी करुणा,
पूर्ण करने को जीव की शाश्वत प्यास । 
जीव की वास्तविक तलाश है प्रेम की, अनंत काल से,
प्रेम के लिए किये है अनेक जतन, जन्म जन्मान्तर से,
परमात्मा करते हैं जीव पर कृपा किसी जन्म में,
प्रकट हो जाते है वे अनंत अगोचर, दृश्य रूप में ।
जब प्रेम प्रकट हो जाये गुरु के रूप में,
परमात्मा स्वयं कृपा कर दे और आनंद बरसाये ,
व्यर्थ है मुक्ति की तलाश,
जीवन आपके श्री चरणों में कट जाये,
आप की कृपा बरसती रहे,
अमृतवाणी सुनने को मिलती रहे,
इतना ही पर्याप्त है,
दुःख सहने का तो जन्मो का अभ्यास है। 

दुःख से मुक्ति की अब चाह नहीं,
आपका साथ मिला है कृपा से,
मुक्ति का अब कोई लाभ नहीं। 

प्रणाम,
जय जय जय गुरुदेव।

Tuesday, May 5, 2015

तैयारी (Birthday on 5th May 2015) Gurudev's preachings

जीवन और मृत्यु का फासला घटता जा रहा है निरंतर,
यही तो प्रत्येक जन्मदिन स्मरण करवाता है
लेकिन मन तो इसे  भी भूल जाता है,
और तैयारी में जुटा रहता है, उम्र भर। 
आगे और जीने की तैयारी,
अपने बच्चों के और बढ़ने की तैयारी,
अपने बड़ो के मरने की तैयारी,
स्वयं के सुख भोग की तैयारी,
ऐसे ही कभी बज जाती है घण्टी ,
और  होने लगती है चलने की तैयारी। 

कितने संदेशे भेजते हैं भगवान ,
कैसे कर पाये स्मरण यह इंसान,
दाँतो का हिलना, बालों का सफ़ेद होना,
असमय बीमार होना, अधिक न  खा पाना ,
भोजन न पचना, शक्ति का क्षय होना,
भगवान से ज्यादा डॉक्टर को याद करना,
लेकिन मन तो अटका रहता है,
बस कुछ दिन में तबीयत ठीक होने की,
इंतज़ार करता रहता है,
आशा पर टिका है जीवन,
सुख भोग की आशा करता रहता है। 

मन तो निरंतर जवान बना रहता है,
इसकी आशा, तृष्णा में कोई अंतर नहीं आता है। 
यह बार-बार घूमता रहता है, उसी चक्र में,
न थकता है, न पकता है, 
न मरता है और न ही मरने देता है। 

इसका यह स्वभाव चाहता है कि गति हो वर्तुल में,
चक्र की तरह घूमते हुऐ भी,
हर बार बड़ा करले अपनी परिधि को,
न पुनः आना पड़े, वहीँ पर लौट कर,
बढ़ता रहे  वृत्त अगली कक्षा की और। 

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ऐसा परिवर्तन संभव है - 
जब जीवन के उत्थान का मार्ग जान लिया जाये,
इस खुले रहस्य की कुंजी मन को मिल जाये,
कि निरंतर अपनी स्थिति में होता रहता है परिवर्तन,
स्थिरता कभी होती नहीं, शाश्वत है परिवर्तन। 

ताकि मन का ध्यान शाश्वत की और चला जाये,
शाश्वत का स्मरण यदि बना रहे,
मन की गति स्वतः ही अगली कक्षा में जाये,
इस तरह मन  का वर्तुल बड़ा होता जाये,
और जीवन अपने लिए नित नये अर्थ खोजता जाये। 

जीवन के अर्थ की तलाश पूरी होगी तभी,
जब यह पा लेगा, शाश्वत को,
जो परिवर्तन से परे है, उस सत्य को,
जो आधार है इस अस्तित्व का,
जिसको पाना ही है लक्ष्य मानव जीवन का। 

इन्द्रिय सुख की पूर्ति मन चाहता है निरंतर,
इसी में कहीं छिपी है, सत्य की प्यास उम्र भर,
कहीं, कभी, किसी दिन  लगता है,
आखिर कब तक घूमता रहूँ मैं इस तरह,
कुछ तो आगे बढ़ूँ जीवन में किसी तरह,
यही सार्थक की तलाश जोड़ देती है,
किसी ऐसे स्रोत से,
जिसे हो गयी है सत्य की उपलब्धि,
जो प्रसन्न है सदैव,
क्योंकि पा लिया है शाश्वत को,
नहीं है शेष कुछ करने को,
नहीं है शेष कुछ पाने को,
और नहीं है शेष कुछ जानने को। 

यदि सौभाग्य से मिलना हो जाये,
गुरु भाव मन में जग जाये,
तो शेष जिम्मा लेते हैं स्वयं गुरुदेव,
करते है निरंतर चोट,
ताकि प्रकट हो सके परमात्मा,
हो जाये भगवत्कृपा ,
मिल जाये दुःखो से छुटकारा ,
प्रसन्नता हो जाये सदा के लिए। 

क्या इसका अर्थ संसार से मुक्ति है ?
क्या इसका अर्थ सन्यास या कर्म से मुक्ति है ?
नहीं, इसका अर्थ सम्यक् ज्ञान है,
सम्यक् कर्म, सम्यक् स्वभाव है। 
सभी कर्म होते रहे लेकिन भाव बदल जाये,
अहंकार के स्थान पर कृतज्ञता आ जाये,
व्यसन छूटे और दुःख मिट जाये,
जीवन का हर कर्म यज्ञ बन जाये। 

करना क्या होगा,
जागरण अपने मन के प्रति,
होश रहे हर कार्य के प्रति,
विवेक करे निर्धारण जीवन पथ का,
न रहे स्वयं पर नियंत्रण मन का। 

ऐसी गुलामी है मन की कि स्वयं भी नहीं जानते हैं। 
अपनी गुलामी को ही आज़ादी मानते हैं। 
अपने मन की करने को मनमानी समझते हैं ,
अहंकार के कारण क्षणिक प्रसन्न हो जाते हैं। 
कर्त्तव्य पालन का सुख जब मिलता है,
दुःख से छुटकारा तभी मिलता है। 
तब  तक तो हर कामना का परिणाम लोभ या क्रोध,
नियंत्रण नहीं हो पाता, जागने लगता है बोध। 
 उपाय है मात्र शरण, परमात्मा या गुरु चरणो की,
शरण हेतु युक्ति है एक मात्र प्रार्थना की। 
अपनी ओर से सब करने का प्रयास,
और बनी रहे कृपा की आस,
एक दिन निश्चित ही काम बन जायेगा,
भव बन्धन से छुटकारा मिल जायेगा। 


Saturday, March 21, 2015

द्वारका कथा यात्रा सम्पन्न (23 दिस० से 29 दिस० )

सफल आयोजन

श्री द्वारकाधीश मंदिर 



                                 



                                   श्री पंडित विजयशंकर मेहता द्वारा श्री मद्भागवत कथा ज्ञान यज्ञ





                                   श्री पंडित सतीश शास्त्री द्वारा नानी बाई का मायरा (सायं सत्र)