Tuesday, May 5, 2015

तैयारी (Birthday on 5th May 2015) Gurudev's preachings

जीवन और मृत्यु का फासला घटता जा रहा है निरंतर,
यही तो प्रत्येक जन्मदिन स्मरण करवाता है
लेकिन मन तो इसे  भी भूल जाता है,
और तैयारी में जुटा रहता है, उम्र भर। 
आगे और जीने की तैयारी,
अपने बच्चों के और बढ़ने की तैयारी,
अपने बड़ो के मरने की तैयारी,
स्वयं के सुख भोग की तैयारी,
ऐसे ही कभी बज जाती है घण्टी ,
और  होने लगती है चलने की तैयारी। 

कितने संदेशे भेजते हैं भगवान ,
कैसे कर पाये स्मरण यह इंसान,
दाँतो का हिलना, बालों का सफ़ेद होना,
असमय बीमार होना, अधिक न  खा पाना ,
भोजन न पचना, शक्ति का क्षय होना,
भगवान से ज्यादा डॉक्टर को याद करना,
लेकिन मन तो अटका रहता है,
बस कुछ दिन में तबीयत ठीक होने की,
इंतज़ार करता रहता है,
आशा पर टिका है जीवन,
सुख भोग की आशा करता रहता है। 

मन तो निरंतर जवान बना रहता है,
इसकी आशा, तृष्णा में कोई अंतर नहीं आता है। 
यह बार-बार घूमता रहता है, उसी चक्र में,
न थकता है, न पकता है, 
न मरता है और न ही मरने देता है। 

इसका यह स्वभाव चाहता है कि गति हो वर्तुल में,
चक्र की तरह घूमते हुऐ भी,
हर बार बड़ा करले अपनी परिधि को,
न पुनः आना पड़े, वहीँ पर लौट कर,
बढ़ता रहे  वृत्त अगली कक्षा की और। 

 Image result for spiral

ऐसा परिवर्तन संभव है - 
जब जीवन के उत्थान का मार्ग जान लिया जाये,
इस खुले रहस्य की कुंजी मन को मिल जाये,
कि निरंतर अपनी स्थिति में होता रहता है परिवर्तन,
स्थिरता कभी होती नहीं, शाश्वत है परिवर्तन। 

ताकि मन का ध्यान शाश्वत की और चला जाये,
शाश्वत का स्मरण यदि बना रहे,
मन की गति स्वतः ही अगली कक्षा में जाये,
इस तरह मन  का वर्तुल बड़ा होता जाये,
और जीवन अपने लिए नित नये अर्थ खोजता जाये। 

जीवन के अर्थ की तलाश पूरी होगी तभी,
जब यह पा लेगा, शाश्वत को,
जो परिवर्तन से परे है, उस सत्य को,
जो आधार है इस अस्तित्व का,
जिसको पाना ही है लक्ष्य मानव जीवन का। 

इन्द्रिय सुख की पूर्ति मन चाहता है निरंतर,
इसी में कहीं छिपी है, सत्य की प्यास उम्र भर,
कहीं, कभी, किसी दिन  लगता है,
आखिर कब तक घूमता रहूँ मैं इस तरह,
कुछ तो आगे बढ़ूँ जीवन में किसी तरह,
यही सार्थक की तलाश जोड़ देती है,
किसी ऐसे स्रोत से,
जिसे हो गयी है सत्य की उपलब्धि,
जो प्रसन्न है सदैव,
क्योंकि पा लिया है शाश्वत को,
नहीं है शेष कुछ करने को,
नहीं है शेष कुछ पाने को,
और नहीं है शेष कुछ जानने को। 

यदि सौभाग्य से मिलना हो जाये,
गुरु भाव मन में जग जाये,
तो शेष जिम्मा लेते हैं स्वयं गुरुदेव,
करते है निरंतर चोट,
ताकि प्रकट हो सके परमात्मा,
हो जाये भगवत्कृपा ,
मिल जाये दुःखो से छुटकारा ,
प्रसन्नता हो जाये सदा के लिए। 

क्या इसका अर्थ संसार से मुक्ति है ?
क्या इसका अर्थ सन्यास या कर्म से मुक्ति है ?
नहीं, इसका अर्थ सम्यक् ज्ञान है,
सम्यक् कर्म, सम्यक् स्वभाव है। 
सभी कर्म होते रहे लेकिन भाव बदल जाये,
अहंकार के स्थान पर कृतज्ञता आ जाये,
व्यसन छूटे और दुःख मिट जाये,
जीवन का हर कर्म यज्ञ बन जाये। 

करना क्या होगा,
जागरण अपने मन के प्रति,
होश रहे हर कार्य के प्रति,
विवेक करे निर्धारण जीवन पथ का,
न रहे स्वयं पर नियंत्रण मन का। 

ऐसी गुलामी है मन की कि स्वयं भी नहीं जानते हैं। 
अपनी गुलामी को ही आज़ादी मानते हैं। 
अपने मन की करने को मनमानी समझते हैं ,
अहंकार के कारण क्षणिक प्रसन्न हो जाते हैं। 
कर्त्तव्य पालन का सुख जब मिलता है,
दुःख से छुटकारा तभी मिलता है। 
तब  तक तो हर कामना का परिणाम लोभ या क्रोध,
नियंत्रण नहीं हो पाता, जागने लगता है बोध। 
 उपाय है मात्र शरण, परमात्मा या गुरु चरणो की,
शरण हेतु युक्ति है एक मात्र प्रार्थना की। 
अपनी ओर से सब करने का प्रयास,
और बनी रहे कृपा की आस,
एक दिन निश्चित ही काम बन जायेगा,
भव बन्धन से छुटकारा मिल जायेगा। 


No comments:

Post a Comment