मुक्ति कौन चाहता है इस संसार से,
व्यक्ति चाहता है मात्र अपने दुःख से मुक्ति।
जीवन चलता रहता है सुख दुःख की श्रृंखला में,
कभी ऐसा पीड़ा का अनुभव होता है कि सुख व्यर्थ दीखने लगते है,
उत्पन्न हो जाता है प्रश्न,
कि क्या यह सारा सुख स्वप्न मात्र था ?
और शुरू हो जाती है
पीड़ा अथवा दुःख से मुक्ति की तलाश।
जीवन शांत मंथर गति से गुजर सकता है,
लेकिन दूसरे को देख कर जागने लगता है,
ईर्ष्या अथवा प्रतिस्पर्था का भाव,
अनुकरण करने या अनुयायी बनाने की इच्छा,
महत्वाकांक्षा बढ़ती जाती है और
जो प्राप्त है वह अपर्याप्त होता जाता है,,
बाहर समृद्धि और भीतर खालीपन बढ़ने लगता है,
और शुरू हो जाती है किसी दिन -
महत्वाकांक्षा या दुःख से मुक्ति की तलाश।
पूर्व जन्म के किसी संस्कार के कारण
सांसारिक सुख व्यर्थ दीखने लगते है,
और मन साधना करना चाहता है,
लेकिन संसार आ बैठता है विचार के माध्यम से,
बस जाता है मन के भीतर ,
दुखी होने लग जाता है साधक अपने ही मन से,
और शुरू हो जाती है,
विचार या दुःख से मुक्ति की तलाश।
सब पा लेता है व्यक्ति जो चाहा था,
स्वास्थ्य, साधन, सम्पत्ति, परिवार।
प्रारब्ध के अनुसार जीवन सुख से भर जाता है,
लेकिन सताने लगता है प्राप्त के खोने का भय,
अपनी मृत्यु तथा अपनों की मृत्यु का भय,
भविष्य में हो सकने वाले दुःख का भय,
और शुरू हो जाती है,
भय या दुःख से मुक्ति की तलाश।
सांसारिक सम्बन्धो में खोजता रहता है व्यक्ति प्रेम,
हर बार संदेह उठता है मन में,
अपने प्रेमास्पद पर अथवा उसकी अनुपस्थिति पर,
कभी प्रेम का पात्र बदल जाता है,
कभी परिस्थिति बदल जाती है,
जीवन आगे बढ़ जाता है,
प्रेम प्रतीक्षा करता रह जाता है,
उदय होता है कहीं मन के किसी कोने में
हताशा या निराशा का भाव,
और शुरू हो जाती है,
निराशा या दुःख से मुक्ति की तलाश।
व्यक्ति जागरूक होकर कर्त्तव्य का पालन करना चाहता है,
प्रारब्ध के वश मिली हुई परिस्थिति में,
स्वयं, परिवार, कुटुंब या राष्ट्र के प्रति
कर्त्तव्य पूरा नहीं कर पाता है,
ऐसा स्वयं के प्रति दोष मन में जाग उठता है,
मन में असमर्थता का दुःख जागने लगता है,
और शुरू हो जाती है,
दोष या दुःख से मुक्ति की तलाश।
स्वयं को मिला हुआ साधन सुख,
या पूर्व जन्मो के संस्कार,
या प्रारब्ध अथवा पुरुषार्थ से मिला संग साथ,
व्यसन या अवगुणो को जन्म देता है,
परिणाम होता है शारीरिक अथवा मानसिक पीड़ा,
और शुरू हो जाती है,
व्यसन या दुःख से मुक्ति की तलाश।
सब पाकर या अत्यल्प भी पाकर,
व्यक्ति को होता है अपने शरीर, परिवार एवं साधन का अहंकार,
बढ़ता जाता है कीर्ति या सम्मान का भाव,
अत्यंत नाजुक अहंकार चोटिल हो उठता है,
अकारण या अनेकानेक कारणों से,
ला देता है मन में दुःख का सैलाब,
और शुरू हो जाती है,
अहंकार या दुःख से मुक्ति की तलाश।
यह तलाश ले आती है,
गुरु या परमात्मा की शरण में,
लेकिन मुक्ति की तलाश तो पूरी हो जाती है समता में,
समत्वं योग उच्यते।
अरे, तो फिर व्यर्थ क्यों है मुक्ति की तलाश?
क्योंकि यह शुष्क धरातल है,
मुक्ति से कुछ मिलता नहीं,
वरन मन से संसार चला जाता है,
और जो था, है, वही रह जाता है।
आनंद है प्रेम में,
भक्ति में, शरणागति में,
क्या फर्क पड़ता है
यदि कुछ जन्म और हो जाये ?
यह परमात्मा का ही रचा हुआ संसार,
जहाँ उनके अतिरिक्त कोई और तत्त्व है ही नहीं,
उस संसार से मुक्ति की चिंता क्यों की जाए ?
परमात्मा प्रकट होते है गुरु के रूप में,
प्रदान करने को अपनी करुणा,
पूर्ण करने को जीव की शाश्वत प्यास ।
जीव की वास्तविक तलाश है प्रेम की, अनंत काल से,
प्रेम के लिए किये है अनेक जतन, जन्म जन्मान्तर से,
परमात्मा करते हैं जीव पर कृपा किसी जन्म में,
प्रकट हो जाते है वे अनंत अगोचर, दृश्य रूप में ।
जब प्रेम प्रकट हो जाये गुरु के रूप में,
परमात्मा स्वयं कृपा कर दे और आनंद बरसाये ,
व्यर्थ है मुक्ति की तलाश,
जीवन आपके श्री चरणों में कट जाये,
आप की कृपा बरसती रहे,
अमृतवाणी सुनने को मिलती रहे,
इतना ही पर्याप्त है,
दुःख सहने का तो जन्मो का अभ्यास है।
दुःख से मुक्ति की अब चाह नहीं,
आपका साथ मिला है कृपा से,
मुक्ति का अब कोई लाभ नहीं।
प्रणाम,
जय जय जय गुरुदेव।
No comments:
Post a Comment