दुःख और सुख शाश्वत है जीवन में,
ऐसा मैंने मान लिया था।
लेकिन दुःख से छुटकारा पाना तो मैं भी चाहता था।
जो चाहा वो मिल जाये, लेकिन लोभ बढ़ता जाये,
लोक मर्यादा के विरुद्ध चाहत भी किसको बतलाये।
जो लोक सोचे वैसा जीवन सुख पूर्ण होता जाये,
भीतर का दुःख , कैसे किसको समझाये ?
जहाँ भी दुःख का गान किया, अपनी अस्मिता का क्षरण किया,
ऐसा जीवन सुन्दर लेकिन, उसमें दुःख इतना भरा,
कहने को सारे सुख,लेकिन मन के भीतर कांटा गड़ा।
ऐसा जीवन जीते जीते , पुस्तकीय ज्ञान भी पा लिया।
औरों को मार्ग दिखाने का दम्भ भी मन में जगा लिया।
इतना ज्ञान कि ऐसा लगता धर्म का अर्थ भी समझ लिया।
आत्म ज्ञान भी मन की एक अवस्था, ऐसा मान लिया।
ऐसा लगा कि बुद्धि के द्वारा समझ सब आ गया,
मानव प्रकृति के वश मे , यह 'सत्य' समझ में आ गया।
लेकिन गुरुदेव के दर्शन से, आत्म ज्ञान का सत्य पता चला।
आत्म ज्ञानी के दर्शन से, शास्त्र का सत्य पता चला।
आत्म ज्ञान है, मन बुद्धि और प्रकृति के परे ,
इसे जानना है असंभव, इसीलिए मन प्रयत्न न करे ,
मन की मृत्यु है आत्म ज्ञान ,
स्वयं की वास्तिवकता का ज्ञान,
प्रकृति के वश में देह रहेगी सदा ,
लेकिन मुक्त हो जायेगा जो सदैव ही मुक्त है,
जिसे भ्रान्ति हो गयी है, स्वयं को मानता है देह,
सूक्ष्म शरीर जो बार बार धारण करता है नयी स्थूल देह,
आत्मा ने किया है तादात्म्य सूक्ष्म शरीर से ,
कारण है इसका कारण शरीर, जो मूल कारण है,
यह सुक्ष्म शरीर के परे है, इसीलिए इसे बुद्धि से नहीं समझ सकते है।
सुख दुःख का अनुभव करता है सूक्ष्म शरीर,
यही यात्रा करता है, संस्कार और स्मृतियों के रूप में,
जीव के साथ, जो इससे जुड़ा रहता है, इसे अपना मान कर,
अनुभव करता है , सुख दुःख का इस तादात्म्य के कारण।
सूक्ष्म शरीर है प्रकृति का अंश, इसी लिए जड़ है,
यह तादात्म्य ही इसकी ऊर्जा का स्त्रोत है।
साक्षी भाव इस तादात्म्य के संस्कार को शिथिल करता है,
इसीलिए सुख दुःख का अनुभव स्वयं को होने से बचा पाता है।
लेकिन प्रकृति का वश अधिक होने के कारण ,
साक्षी भाव स्थिर नहीं रह पाता है।
ऐसे में प्रार्थना के द्वारा व्यक्ति को सम्बल मिल पाता है,
और सुख दुख या आवेग से व्यक्ति बच जाता है।
यह सब जानते हुए, भी प्रकृति का आकर्षण नहीं छूट पाता है,
बार बार व्यक्ति आवेग के प्रवाह में बह जाता है,
आवेग के प्रवाह में बहने का जन्म-जन्मान्तर का अभ्यास है।
इससे पार पा सकने के लिए, करना विपरीत अभ्यास है।
साक्षी भाव और प्रार्थना, आवेग का प्रवाह,
और आवेग शांत होने पर पुनः साक्षी भाव और प्रार्थना।
धीरे धीरे साक्षी भाव और प्रार्थना का समय बढ़ता जाये,
आवेग के प्रवाह में समय कम होता जाये ,
कर्त्तव्य सम्पादन में अधिकाधिक समय लगे,
मिथ्याचारिता से जीवन दूर रहे,
ऐसे ही किसी दिन प्रार्थना होगी स्वीकार ,
और परम से होगा जीवन में साक्षात्कार,
उसके बाद आवेग का प्रवाह कुछ न कर पायेगा,
यह जीवन परम शांति से परिपूर्ण हो जायेगा।
यात्रा अनंत की चलती रहे अनंत,
जीव का शाश्वत आनंद बढ़ता रहे अनंत।
...... अत्युत्तमम् , यथार्थम् , शब्दातीतम् ।
ReplyDelete🙏🏼
Delete