Tuesday, February 8, 2022

राम को प्रणाम

राम ने राह दिखाई मानव जीवन के लिए,
राह पर चलकर दिखाया, हमारे लिए।
 
विश्व भरण पोषण कर्ता, आए राम के साथ,
नामकरण के समय, दिया गया भरत नाम,
राम ने भ्राता भरत को, प्रेम किया इस तरह,
राज्य मिला, लेकिन भरत, ना सह सके राम विरह। 

चाहते हैं, राम लौट आए, राज्य सम्भाले,
जाते हैं परिजन समेत, राम को वापस बुलाने। 
और राम प्रेम वश कहते हैं, करूँ वही जो भरत कह दे,
अब भरत को असमंजस, कैसे प्रेम की मर्यादा तोड़ दे। 

प्रेम में अनुचित की माँग, की नहीं जाती है। 
अपनी नहीं, प्रेमी के मन की बात चुनी जाती है। 
प्रेमी का मान रहे, उसी की जग में शान रहे,
प्रेम में डूबे हुए, स्वयं का न मान- गुमान रहे। 

कैसे कहें अब भरत, कि राम तुम लौट चलो,
मेरे विरह के कारण, कर्तव्य से मुख मोड़ लो। 
यहाँ मोह नहीं, प्रेम है, आग्रह नहीं कर्तव्य है,
प्रेम की राह में स्वयं की, इच्छाओं का क्षय है। 

विरह के कारण जा सकते हैं प्राण भी,
राम ही हैं प्राणाधार, करें इसका त्राण वही। 
भूल गए कि राम को लौटाकर ले जाना है,
व्यथित रहे इतना, अब राम को ही सोचना है। 

राम भी हैं संकुचित, क्या होगा यह उचित,
प्रेम के वशीभूत हैं, स्वयं राम का भी मन चित्त। 
समझ गए, नहीं संतोष, भरत को बिना आधार,
करी कृपा, दी पाँवरी, भरत को हुआ हर्ष अपार। 

सीता राम का साथ मिल गया हो जैसे,
भरत ने शीश पर धारण की, राम पादुका वैसे। 
लगे पाँवरी दोनो हैं,  दो अक्षर का राम नाम,
जो मिल गया अवध को, बन गया सब काम। 

प्रसन्न मन से सब लौट चले अवध की और, 
राम सदैव रहे प्रमुदित, बढ़ गए वन की और। 
प्रेम की मर्यादा का अनुपम वर्णन है यह प्रसंग,
भरत प्रेम की तुलना, होती गोपी प्रेम के संग। 

विरह में प्राण त्याग देना, सम्भव था दशरथ के लिए,
पर प्रेमी के सुख के लिए, तड़पते हुए जो जिए।
ऐसे थे भरत, और गोपियों के चरित्र,
प्रेम का उदाहरण, हमें लगते विचित्र। 

इसी प्रेम के लिए आते हैं, राम और कृष्ण,
मात्र भृकुटि विलास से, मर जाते रावण या कंस। 
परमात्मा का अवतार होता है इस धरा पर बार बार,
क्योंकि प्रेमी भक्त जन्म लेते हैं, भारत में अपार। 

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