Monday, August 5, 2013

धर्मं

चैतन्य, शुद्ध ज्ञान आवृत हुआ अज्ञान से,
लिपट गया प्रकृति से, बद्ध हुआ मायिक पाश से।
ऐसा उसे प्रतीत हुआ, यह भला क्यों संभव हुआ ?
प्रकृति शक्ति चैतन्य की, इसीलिए ऐसा हुआ।

बादल सूर्य को भला कहाँ ढ़कता है ?
सम्पूर्ण पृथ्वी पर अँधेरा कहाँ होता है ?
प्रकृति के चक्र से संचारित सभी जीव है,
पाश से बंधे पशु, स्वंतत्र  मानव शरीर है।
मानव की यात्रा भी तम  से सत की ओर है,
इसी के विभिन्न तलों पर सारे मानव शरीर है।

चैतन्य का प्रकाश चित्त से परावर्तित निरंतर हो रहा,
जैसे चन्द्रमा को सूर्य, प्रकाशित निरंतर कर रहा।
रात्रि में लगता है कि चन्द्रमा स्वयं प्रकाशित है,
धवल शुद्ध चाँदनी से मन कितना आनंदित है।
ठीक इसी प्रकार चित्त से प्रकाशित है हमारे दिन रात,
इसी को मुनि कहते निशा, जागरण से होगा प्रभात।
सूर्य है मानो आत्मा, और चित्त है मानो चन्द्रमा,
चित्त और चैतन्य का अंतर, जान ले यदि जीवात्मा।
चैतन्य से प्रकाशित हो जाते है उसके सभी कर्म,
मानव देह मे परमात्मा का अवतरण ही है धर्म।

परमात्मा स्वयं हुए प्रकट संसार के रूप में,
उन्ही की अभिव्यक्ति है, प्रकृति प्रकट रूप में,
आत्मा की अभिव्यक्ति ही, सारे शरीर है,
आत्मा है निराकार, साकार रूप शरीर है।

 मूल स्वरूप सदा आनंदित, चित्त क्यों दुःख कर रहा ?
अहंकार के वशीभूत, स्वयं को कर्ता समझ रहा।
सीमित कर लिया स्वयं को शरीर की सीमा में,
शरीर से मैं और शरीर से जुड़े वो मेरा, यह जाना इसने।
मै और मेरे की सीमा, शरीर के साथ रहेगी सदा,
मैं गिरते ही, मेरे की भी, चिंता क्यों होगी भला ?

दुःख के मध्य सुख का आभास यात्रा को आगे बढाता है,
निरंतर सुख की खोज में, व्यक्ति अध्यात्म में, चला आता है।
अध्यात्म में प्रगति, समर्थ गुरु के बिना संभव नहीं,
जो मुक्त हो स्वयं, उसकी करुणा से ही, संभव यही।
गुरु की करुणा और कृपा जिन्हें मिल पाती है,
यात्रा इस दिशा में, उनकी संभव हो पाती है।

मानव शरीर मिला, रूचि जगी अध्यात्म की ओर,
गुरु भी मिल गए, भगवत कृपा का ओर न छोर।
इस अनंत कृपा के प्रवाह में जो भीग रहे है,
निर्वाण के बिना ही सुख का अनुभव कर रहे है।

भाव ही है महत्वपूर्ण, क्रिया कुछ अधिक नहीं,
निषेध का ही है महत्व, करने से कुछ होता नहीं।
करने से कुछ होता नहीं, और बिना किये होगा नहीं,
यह निषेध के लिए कहा, ध्यान देना है यही।
जो एक अक्षर न पढ़े, या नाम न सुने, वह भी पा सकता है,
यदि निषेध का पालन करे, कर्त्तव्य सदा कर सकता है।
लेकिन ऐसा हर प्रयास सफल नहीं हो पाता है,
इसीलिए समर्थ गुरु करुणा से राह दिखलाता है।

हे नाथ ! मैं भुलूँ नहीं, अपना सम्बन्ध जोड़ लो,
परमात्मा एक परिकल्पना, सीमित से असीम को जोड़ लो।
गुरु एक द्वार है, जो जुड़ चुका है असीम से,
गुजर जाओ इससे यदि, तुम भी जुड़ो असीम से।
गुजरने का अर्थ है पूर्ण समर्पण,
आज्ञापालन और अहंकार का अर्पण।
ऐसा होते ही हो जाएगा निर्वाण, शरीर भले चलता रहे,
प्रारब्ध से निर्मित हुआ, अपना समय पूरा करता रहे।

गुरु का मिलना परम सौभाग्य की शुरुआत है,
समर्पण गुरु के प्रति, यात्रा की शुरुआत है।
जिस अनुपात में गुरु के प्रति बढता रहे समर्पण,
यात्रा भी बढ़ती रहे, सुख का होता रहे संवर्धन।
यह अध्यात्म त्याग का मार्ग है, इसका विचित्र प्रभाव है,
भौतिक जीवन भी प्रकाशित, बढ़ता आनंद का भाव है।
होगा भला क्यों नहीं, यह जगत क्या कुछ और है,
उसी परमात्मा का प्रकाश, यहाँ फैला चहुँओर है।
सुख दुःख, आनंद विषाद, सभी कुछ भ्रान्ति है,
वास्तविक स्वरूप तो मात्र ज्ञान, आनंद, पूर्ण शांति है।

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