जीवन के सारे सम्बन्ध है, अपेक्षा आधारित।
सापेक्ष यह संसार है, सभी कुछ यहाँ सापेक्षिक।
अपेक्षा के कारण ही कुछ ऐसा घटता यहाँ।
स्वयं का प्रयत्न अधिक, प्रतिदान कम लगता सदा।
प्रकृति का विधान ही कुछ ऐसा होता है।
जो सापेक्षिक, वही प्राकृतिक कहलाता है।
परमात्मा भी जीव से करते अपेक्षा कर्तव्यपालन की,
करते स्वयं व्यवस्था यहाँ , उसके जीवन यापन की।
स्वयं ही लीला करते, स्वयं से ही जीव बनाते,
स्वयं से ही रचते संसार, स्वयं ही सब बन जाते।
ध्यान रखते सदा, जीव को, ठहरने न देते कहीं भी,
पशु योनि में दुःख विहीन, पर देते मनुष्य योनि भी।
अवसर देते उसे अपनी प्रकृति में विकास करने का,
विकसित मस्तिष्क में भाव भर देते अहंकार का।
यही अहंकार, प्रेरित करता कुछ भी कर देने को,
स्मृति के माध्यम से नया इतिहास रचने को।
मृत्यु की शाश्वत चुनौती, परमात्मा ने यहाँ रची,
परिवर्तन के आधार पर, उन्होंने यह सृष्टि रची।
इसी मृत्यु के पार जाने के मानवीय प्रयास ने
दिया जन्म हर विशाल स्थापत्य कलाकृति को,
ज्ञान से भरी कालजयी साहित्यिक कृति को,
समाज को दिशा देती ऐतिहासिक काव्य कृति को।
प्रकृति को विजय करते वैज्ञानिक आविष्कार को,
मन का हरण करने वाले महान कलाकार को,
विश्व विजेता कीर्तिमान चक्रवर्ती सम्राट को,
ऐसा लगे कि जैसे मनुष्य रचता हो विराट को।
लेकिन ऐसा हर प्रयास काल के आगे निष्फल हुआ,
अवशेष रहे, या कहीं मात्र स्मृति में अवशेष रहा।
भारत में अद्भुत प्रयास हुए यह जानने को,
अनेक शताब्दियों तक रहस्य पाने को।
कैसे मानव पार करे मृत्यु की सीमा को,
कैसे जाने जो शेष कर सकता हो मृत्यु को।
जीवन तो मृत्यु को प्राप्त करेगा यह सत्य है,
जो मृत्यु को पार करे, वो जीवन मुक्त है।
यदि जीवन से मुक्ति की राह मिल सकती है,
तो मृत्यु के भय से मुक्ति मिल सकती है।
लेकिन जाना होगा प्रकृति के पार,
यह शक्ति परमात्मा की, है अनंत अपार।
प्रकृति के नियंता है परमात्मा,
प्रकृति के पार है परमात्मा,
प्रकृति के हर कण में भी है परमात्मा,
इसी लिए सबके पास है परमात्मा।
जीव, नियंता का अंश होने से, प्रकृति से परे है।
उसी के समान, अपेक्षा और सांसारिकता से परे है।
प्रकृति के अनुरूप व्यवहार, देह व मन का धर्मं है।
मृत्यु के पार शुद्ध आनंद , जीव का स्वधर्म है।
लेकिन मनुष्य फिर रहा अपेक्षाओ का भार लिए,
अपने और अपने साथी के दुःख का प्रबंध लिए।
अपेक्षा के कारण, उसे अन्य कृपण नजर आता है।
स्वयं में उदारता, औरो में दोष नजर आता है।
निरपेक्ष परमात्मा का अंश जीव, शरीर को जानता है ऐसे,
घड़े में भरा पानी अपने को, घड़े से पहचानता हो जैसे।
संसार ने पूछा बचपन में, तू कौन है,
तेरा क्या नाम है, तेरी क्या पहचान है ?
अपने देह से जाना स्वयं को, इसी से ऐसा माना,
सबसे नाता जोड़ा इसी ने, इसी को अपना जाना।
लेकिन हर सम्बन्ध अपेक्षा से भरा हुआ था,
स्वयं का मन भी कामनाओ से भर रहा था।
प्रारब्ध समाया हुआ चित्त में, प्रेरित कर रहा था,
अहंकार प्रेरित बुद्धि से जीवन चल रहा था।
लेकिन यह सुख की और बढ़ते कदम,
दुःख के जाल में उलझ जाते है,
परमात्मा निश्चित ही, जीव को,
ऐसे भुलावे में न छोड़ पाते है।
करते है कृपा जीव पर, उसे दुःख देकर,
याद दिलाते है अपनी, उसे तडपा कर।
यहाँ तुम यह नास्तिक प्रश्न, मत पूछ लेना,
जब जीव को सुख में मजा, दुःख क्यों वे देते भला?
-यदि वो ऐसा करते है, तो यह उनकी लीला है,
-अनंत परमात्मा की प्रकृति में जीव की अनंत यात्रा है।
यहाँ से विकसित जीव किस लोक में जाते है?
-क्या वैज्ञानिक भी इस सृष्टि का पार पाते है?
जब वैज्ञानिक उपलब्धि सभी को मिल जाती है।
यह अध्यात्म की बात, व्यक्तिगत क्यों रह जाती है ?
-साथ सिर्फ संसार में, आगे की यात्रा अकेले ही होती है,
-हर व्यक्ति का इतिहास भिन्न, प्रकृति में नक़ल नहीं होती है।
यदि सब कुछ यहाँ करते मानव, परमात्मा की कृपा क्या है?
-तू अदना सा मिटटी का पुतला, यह सवाल करे, यह और क्या है ?
परमात्मा जीव की करते रक्षा अपनी बनाई प्रकृति से,
मानव को दिया अवसर कि छेड कर सके प्रकृति से।
मानव को स्वतन्त्र बनाया, लीला करने के लिए,
वो सदा आनंदमय, देंगे कष्ट क्या करने के लिए ?
यह खेल है जो प्रकृति और पुरुष में चलता रहता है,
असीमित का अंश भी प्रकृति के वश में आता रहता है।
वह अपने अंशी को भूलकर प्रकृति में रम जाता है,
प्रकृति माया है, इसको पाश से बांधने में मजा आता है।
महा ठगिनी है, यह अनेको रूप लेती है,
परमात्मा के अंश को भी भ्रमित कर देती है।
अंश ही अंशी के अस्तित्व पर सवाल उठा देता है।
प्रकृति को भी वश में करने का सपना देख लेता है।
लेकिन परमात्मा के विधान के आगे प्रकृति विवश है,
मृत्यु की निश्चितता, के आगे किसी का नहीं वश है।
ऐसे में मानुष को दिया गया यह परमात्मा का विवेक,
कर सकता है उसका इस जीवन में भला मात्र एक।
वह अपने अस्तित्व के वास्तविक स्वरुप को पहचान ले,
मृत्यु के परे, अपने अंशी से अपनी एकता को जान ले।
पा सकता है इस माया रूपी ठगिनी से मुक्ति,
यदि स्वीकार कर ले, ईश्वर या गुरु की शरणागति।
वर्ना भी कोई बड़ा नुकसान नहीं होता है,
कुछ लाख जन्म, कुछ और कष्ट, आना फिर भी होता है।
इस जगत के विधालय से कभी तो लेनी है मुक्ति,
कितनी बार अनुत्तीर्ण होना, निश्चय करो यथा मति।
मुझे तो गुरुदेव समझ अब आता नहीं,
ज्ञान भी और अब, बुद्धि में समाता नहीं,
आप करो कृपा और दे दो आशीर्वाद,
उत्तीर्ण भले न हो, लेकिन आपका साथ मिले निर्बाध।
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