Friday, September 20, 2013

शरणागति

जो है, जैसा है, उसे स्वीकार करना सर्वोत्तम विधान है।
ईश्वर की कृपा सदा, यह स्वीकार करता अभिमान है।
ऐसा ही अपने बारे में सोचता रह गया,
अपने अवगुणों को भी विधान मानता रहा।
करता रहा सारे कर्म, यही मन में विश्वास लिए,
जन्म हुआ इन कामना के साथ, इनकी पूर्ति के लिए।
काश इस जन्म में यह कामना पूर्ण हो जाये,
ताकि अगले जन्म में इससे मुक्ति हो जाये।

सुख मिलता तो उसे भी विधान मान लेता था,
दुःख मिलता था, उसे भी स्वीकार कर लेता था,
सोचता था मानव जीवन दुःख सुख से है भरा हुआ,
कामना, दुःख और सुख का साथ सदा जुड़ा हुआ।
इसलिये जो बन सके वह सेवा करो,
अपने मन को सुख मिले ऐसा सदा काम करो।
जीवन के साथ कोई विकार सदा रहता है,
इसीलिए जीव शरीर में स्थित रहता है।
विकार से मुक्ति ही, जीवन से मुक्ति भी होगी,
मृत्यु के पहले तो, यह मन की ही स्थिति होगी।
प्रवृत्ति का परिणाम एक दिन निवृत्ति होगा,
अगले जन्म में मुक्ति, लाभ यह निश्चित होगा।

पढ़कर पुस्तके अनेक, जानकारी प्राप्त करता रहा,
अपने आपको औरो से ज्ञानी समझता रहा,
देता रहा सलाह अनेक, शेखी बघारता रहा,
अपनी समझ से लोगो को, राह दिखाता रहा।
कुछ अपने कर्म से, और कुछ दैव कृपा से,
करते रहे प्रगति जीवन में, बढ़ते रहे आगे।
मुझे भी लगता रहा, कि मेरी सलाह ठीक रही,
समझदार हूँ, ऐसी ही सोच बनती रही।

जब बचपन में पढ़ता बात मोक्ष की,
तो मन में लगता कि ऐसा होता होगा,
लेकिन मिलकर तथाकथित गुरुओ से,
लगा कि यह मृत्यु के बाद होता होगा।
लाखो शिष्य थे, फिर भी कामना बाकी थी,
धन की कमी नहीं,लेकिन इच्छा तो बची थी,
जो कुटिया में रहते, वो भी कुछ चाहते थे,
जो गृहस्थ थे, वो भी पार न हुए थे।
जो परमात्मा सदैव प्राप्त, उनकी अप्राप्ति तो न होगी,
लेकिन कामना यदि साथ थी, तो मोक्ष की स्थिति भी न होगी।

ऐसे में मुझसे हो जाता यह गुरुतर अपराध,
इस संस्कृति में जन्म, जानकारी पाने के बाद।
कहता रह जाता, परम आनंद मन की स्थिति मात्र है,
मनोविज्ञान के चरम पर भारतीय ज्ञान है।
व्यक्ति के मन में भय और लोभ है,
परम आनंद की लालसा लोभ का उत्कर्ष है,
भय है मृत्यु का, शरीर छूट जाने का,
मोक्ष उस भय से मुक्ति का उपाय है।

व्यक्ति चाहता है, जीवन में ऐसा कोई सहारा,
जो सदा साथ रहे, और दुःख सुने हमारा,
जिसकी कोई मांग न हो, कोई जिम्मेदारी न हमपर हो,
काम कर दे सब हमारे, हमसे पहले मृत्यु न हो।
ऐसा सोचकर बनाया मानव ने ईश्वर को,
और उसी का उपयोग करके रच दिया धर्म को।

ताकि मानव मानवों का शोषण करता रहे,
अपने पाप का भार, शोषित के पूर्व जन्मो पर डालता रहे,
साथ देते रहे पण्डे पुरोहित भी ऐसे दानव का,
धर्म के नाम पर शोषण करते रहे जन जन का।

कर्मयोग के नाम पर अपना ली अकर्मण्यता ,
समता नहीं करते प्रभु, इसलिए आर्थिक विषमता,
कहानियाँ अति सुन्दर, दान और पुण्य की सुनाई हमने,
वर्ण भेद और जाति भेद कि खाई बनाई हमने।

मुझे जीवन में ऐसा ही रह जाना था,
लेकिन ईश्वरीय कृपा को जीवन में आना था,
मेरे अति दयालू गुरुदेव ने कृपा की,
मुझसे मिलने को कैसी लीला रची।
उनके सामने आने पर धर्म साकार हो गया,
सूर्य के सामने बादल तिरोहित हो गया,
जान लिया कि मोक्ष होता है जीवन में,
सत्य है परम आनंद, मिलता इसी जीवन में,
मृत्यु से मुक्ति का नहीं कोई सम्बन्ध है,
मन के पार है, जहाँ न मन का कोई बन्ध है।

मेरे गुरुदेव ने रक्षा की इस गुरुतर अपराध से,
जाग्रत किया विवेक को, प्यार और दुलार से।
माता की तरह, प्रेम बस करते रहे,
अनगिनत गलतियाँ, माफ़ बस करते रहे।
उनकी उपस्थिति मात्र से सब बदल जाता है,
पत्थर भी गंगा में शालिग्राम हो जाता है।

जाना कि सर्वोत्तम विधान है शरणागति,
ईश्वर के विधान को समझने योग्य नहीं मति।
अपनी बुद्धि से सिर्फ वो समझ में आता है,
जो कामना से भरा मन समझाता है,
बुद्धि तो वैश्या  है, सती नहीं होती है,
यह तो मन के अनुरूप वर का चयन करती है।

ऐसे में विकारो से रक्षा करते है गुरुदेव,
उनसे प्रार्थना मात्र से टल जाते है दैव,
आकर्षण मन का इतना है, बुद्धि के तर्क अनेक है,
गुरु से प्रार्थना ही ऐसे में, राह मात्र एक है।
हो सकता है कि उनको कष्ट होता हो मेरी रक्षा में,
लेकिन मैं उनकी शरण,  लाज नहीं मुझे भिक्षा में,
वो जो चाहे करे, मुझे तो न ज्ञान चाहिये और न ही आनंद,
उनकी याद से, मिट जाते है दुःख, यही मेरे लिए परमानन्द।

विवेक हो जाग्रत, तो व्यर्थ हो जाती है बुद्धि,
जब प्रभु हो समक्ष, चाहिये मात्र शरणागति।

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