आसान होता है यह उत्तर देना कि सब अच्छा चल रहा है!
अपने को भी बताना होता है मुश्किल,
कि, बुरा क्या लग रहा है !!
यह भी तो लगता है कि मुझे कोई दुःख नहीं है,
मुझे किसी की परवाह नहीं, ख़ुद से मस्त हूँ, शिकायत नहीं है।
क्या कुछ रटे हुए उत्तर दे रहे हैं?
बिना जाने ही, बस कह रहे हैं?
औपचारिकता मात्र ही तो है, ये प्रश्न और हमारे उत्तर,
यदि सुनाने लगे हाल अपना, भाग जाएँगे ये डरकर,
कहाँ से लायें समय तुम्हारा हाल सुनने के लिए,
समय तो मिला नहीं, कभी स्वयं का हाल भी सुनने के लिए।
जब हम किसी का हाल सुनते हैं,
अपने भीतर तो अपना ही हाल सुनते हैं!
याद आता है हमें कि हमने क्या किया था,
ऐसे ही हालात में कैसे काम किया था ?
अपनी ग़लतियाँ याद आती है,
मन में एक टीस सी उठ जाती है,
मुझे तो ख़्याल ही न था,
मुझे बेहतर होना चाहिए था।
आगे के लिए सबक़ मिल जाता है,
अपना हाल थोड़ा ठीक हो जाता है।
ऐसे किसी और का भला ना भी करें,
ख़ुद का तो भला हो ही जाता है।
अच्छा अपना हाल यदि हम ख़ुद को सुनायें,
क्या हम सच्चाई से स्वयं को जान पायें?
अपने काम में कमी भले कोई ना बताये,
हम तो जानते हैं,
फिर अनजान क्यों बन जाते हैं?
अपने काम में अपनी ओर से सुधार,
निरंतर बना देता है, इसे और बेहतर।
लेकिन प्रसन्नता के लिए तो और भी ज़रूरी है,
अपने स्वभाव में निरंतर सुधार।
यह बना देता है, हमें और बेहतर।
नयी बात को सीखना और अभ्यास,
बन जाती है आदत और फिर स्वभाव।
ऐसे ही जन्म जन्मांतर से बहुत सा अभ्यास,
परिणाम है यह हमारा वर्तमान स्वभाव।
स्वभाव में कमी हमें हमारी विशेषता लगती है,
ये कमियाँ ही हमें औरों से, अलग जो करती है।
विशेषता समझते हैं, इसीलिए कमी दूर नहीं होती है,
इस सच्चाई को समझने में उम्र गुज़र जाती है।
दुःख को जानने का पैमाना क्या है?
अरे मैं प्रसन्न हूँ, मुझे पता है।
‘प्रसन्नता में कोई शिकायत नहीं होती है।
प्रसन्न व्यक्ति क्रोध नहीं करता है।’
सतह पर दिखावटी होती है हमारी ख़ुशी,
ज़रा सी बात पर आया क्रोध,
क्योंकि हम हैं, भीतर से दुःखी।
अब जानो स्वयं को कि सुखी या दुःखी?
यदि क्रोध और शिकायत नहीं, आप हैं सुखी,
वरना यह दिखावटी है ख़ुशी, आप हैं दुःखी।
बुरा लगने की बात नहीं, शांति से विचार करो,
अपने भीतर शांति है, उसी की तलाश करो।
दूसरे के प्रति अपना कर्तव्य हम पूरा करें,
उससे अपनी प्रसन्नता को बाँधकर ना रखे।
हम प्रसन्न रहने का दिखावा भले करें,
अपने सत्य को पहचाने और स्वयं सच में प्रसन्न रहें।
बस अब एक आख़िरी बात और है,
दुःख ना होना ही प्रसन्नता है, यही सत्य है।
दुःख का कारण है अपेक्षा,
आशा और तुलना दोनो से दूरी,
हो जाएगी प्रसन्नता पूरी।