‘‘हमारी...कला आज इतनी क्षुद्र इसलिए है क्योंकि हमारा समकालिन अस्तित्व ऐसा है, इसलिए भी हम अपने बारे में या अपने समाज के बारे में कुछ भी उत्कट या गहराई से अनुभव किया हुआ व्यक्त करने का प्रयत्न नहीं करते ।’’ - चार्ल्स कोरिया
संस्कृत की एक प्रसिद्द उक्ति है ‘‘विद्या ददाति विनयम् ’’ ज्ञान से ही विनय की प्राप्ति होती है अपने आसपास के क्षैत्र को भली भांति जानना सबसे पहला पायदान है ज्ञान प्राप्त करने का और फिर उसके बाद बाह्य के बारे में जानकारी प्राप्त करने की लालसा मानव के मन में सहज व्यापती है । किसी भी स्थान का लेखन इतिहास, भूगोल और सामाजिक सांस्कृतिक साहित्यिक परिवेश को एक किताब के आकार में पिरोना सबसे कठिन कार्य होता है और उससे भी कठिन है किसी एक छोटे से स्थान के बारे में सारी सूचना एकत्रित करके उसे पुस्तकाकार रूप देना इसी क्रम में विगत दिनों नेशनल पब्लि’शिंग हाउस से एक पुस्तक प्रकाशित हुई ‘‘लालसोट का इतिहास’’ इस कठिन और दुरूह कार्य को किया बृजमोहन द्विवेदी ने ।
वैसे तो इतिहास हमारे चारों तरफ बिखरा पड़ा है आवश्यकता है सूक्ष्म दृष्टि से उसे पहचानने की कण कण और क्षण क्षण इतिहास की सूक्ष्यमतम इकाईयां ही तो है तो वहीं दूसरी ओर हमारा सम्पूर्ण परिवेश हमारी सांस्कृतिक और साहित्यिक धरोहर का हिस्सा है हमारा घर गांव पगडडियां बाग बगीचे हमारे आसापास फैली हर वस्तु किसी न किसी उत्कृष्ट कला का नायाब नमूना है बस जरूरत है तो उस बारीक नजर की जिससे उसे पहचाना जा सके श्री बृजमोहन द्विवेदी ने लालसोट के इतिहास के माध्यम से हमारे आसपास पसरे इन नायाब तोहफों को पहचानने की नजर प्रदान करने का काम किया है ।
दरअस्ल समीक्ष्य पुस्तक के माध्यम से लालसोट के इतिहास के साथ साथ शोधपरक प्रामाणिक सूचनाऐं अत्यंत सरस और रोचक ढंग से प्रस्तूत करने में लेखक ने कामयाबी हासिल की है उन्होंने लालसोट जैसे छोटे से स्थान को लेकर यह ’शोधपरक कार्य किया और सफल भी हुए । नतीजतन लालसोट के दुर्गम बीहड़ और विस्तृत क्षेत्र में व्याप्त धार्मिक , सांस्कृतिक और सामाजिक रीति रिवाज परत दर परत हमारे सामने खुलते चले गये । महत्वपूर्ण घटनाये और इतिहास के ब्योरे एक एक कर हमारे सामने बेपर्दा होते चले गये । क्षेत्र का हेला खयाल दंगल , गणगौर की सवारी , दादूपंथी जमात और मंदिरों के साथ साथ ताजियों का वर्णन लालसोट में व्याप्त धार्मिक समरसता और सांस्कृतिक एकता का मार्ग प्रशस्त करता है । क्षेत्र के विकास में योगदान देने वाले श्रेष्ठजनों के ब्योरे भी अंकित करने का प्रयास लेखक ने किया हैं ।
समीक्ष्य पुस्तक मे कुल जमा दस अध्यास समाहित हैं जिनमें सम्पूर्ण लालसोट को समेटने का प्रयास किया गया है इनमें प्रमुख हैं ‘‘युद्धों की भूमि - अंधेरी पगडंडी’’, ‘‘अतीत के दो हजार वर्ष’’, ‘‘आध्यात्मिक आंदोलन’’ और ‘‘स्वतंत्रता आंदोलन’’ इसके अतिरिक्त लालसोट की कुछ झलकियां भी लेखक ने देने का प्रयास किया है, देखें
‘‘सीरो म्हारै कोस दंकोस्यो, पूआ कोस बारा । जो सुण पांऊ लाडू की तो, दौडूं कोस अठारा ।।’’
कहते हैं पच्चीस तीस वर्ष पूर्व देसी घी का जमाना था चाहे श्री बिनौरी हनुमान जी के किसी की तरफ से चोटी जड़ूले हो या माताजी की सवामणी हो तीन तीन कोस तक रसोई जीमणे पैदल ही दौड़ पड़ते और लौट आते थे जबकि आज लोग पड़ोस में होने वाले भोजन कार्यक्रम में जाने से कतराते हैं (पृष्ठ 108)
समीक्ष्य पुस्तक में लेखक ने क्षेत्र में मनाये जाने वाले बार त्यौहारों का बड़ी ही बारीकी से अध्ययन मनन किया है साँझा पूजन करने वाली युवतियों द्वारा गाये जाने वाला गीत है ‘‘कर बाई , साँझा आरती , आरतड्या में - हीरा मेलूं , मोती मेलूं रोक रूपया मेलॅं , राजाजी की कोयल मेलू रानीजी को सूवो मेलूं , पाँच मोहर पाटा पे मेलूं कर बाई साँझा आरती , कर बाई सूरज की भेण आरत्यो , चंदा की बाई आरत्यो ( पृष्ठ 76)
इसी तरह लालसोट निवासी हजारी लाल ग्रामीण की रचना ‘‘म्हारा प्यारो राजस्थान ’’
....कस केसरियो साफो सर पे , चाले छाती ताण ,
बांकी बांकी मुछड़ल्या रा , बांका बांका जवान ,
म्हारा प्यारा राजस्थान ।
....तू राणा री जन्म भूमि दुर्गादास रो देस ,
बापोती बाप्पा रावल री , हजारी रो हृदयेस ,
म्हारा प्यारा राजस्थान ’’ ( पृष्ठ 115 )
ब्रजमोहन द्विवेदी ने इतिहास को जानने पहचानने का यत्किंचित प्रयास करते हुए कहा
‘‘लोक में
जिनके नाम की चर्चा है
क्षुद्र सीमाओं को लांघकर
जिनकी प्रशस्तियां लिपिबद्ध हैं
इतिहास वहीं है ।
उन पृष्ठों में
तुम ! कहीं विराम ।
अद्र्ध विराम भी बन सको तो
धन्यवाद !’’ (आमुख)
समीक्ष्य पुस्तक के लेखन ब्रजमोहन द्विवेदी ने अथक परिश्रम से इतिहास प्रेमियों और सहृदय पाठकों को ‘‘लालसोट का इतिहास ’’ के रूप में लालसोट को जानने समझने की एक नायाब कुंजी प्रदान की है जो सुधी पाठकों के लिए संग्रहणीय ग्रंथ साबित होगी ।
लालसोट का इतिहास-लेखक ब्रजमोहन द्विवेदी (नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली) मूल्य 250- पृष्ठ 130
संस्कृत की एक प्रसिद्द उक्ति है ‘‘विद्या ददाति विनयम् ’’ ज्ञान से ही विनय की प्राप्ति होती है अपने आसपास के क्षैत्र को भली भांति जानना सबसे पहला पायदान है ज्ञान प्राप्त करने का और फिर उसके बाद बाह्य के बारे में जानकारी प्राप्त करने की लालसा मानव के मन में सहज व्यापती है । किसी भी स्थान का लेखन इतिहास, भूगोल और सामाजिक सांस्कृतिक साहित्यिक परिवेश को एक किताब के आकार में पिरोना सबसे कठिन कार्य होता है और उससे भी कठिन है किसी एक छोटे से स्थान के बारे में सारी सूचना एकत्रित करके उसे पुस्तकाकार रूप देना इसी क्रम में विगत दिनों नेशनल पब्लि’शिंग हाउस से एक पुस्तक प्रकाशित हुई ‘‘लालसोट का इतिहास’’ इस कठिन और दुरूह कार्य को किया बृजमोहन द्विवेदी ने ।
वैसे तो इतिहास हमारे चारों तरफ बिखरा पड़ा है आवश्यकता है सूक्ष्म दृष्टि से उसे पहचानने की कण कण और क्षण क्षण इतिहास की सूक्ष्यमतम इकाईयां ही तो है तो वहीं दूसरी ओर हमारा सम्पूर्ण परिवेश हमारी सांस्कृतिक और साहित्यिक धरोहर का हिस्सा है हमारा घर गांव पगडडियां बाग बगीचे हमारे आसापास फैली हर वस्तु किसी न किसी उत्कृष्ट कला का नायाब नमूना है बस जरूरत है तो उस बारीक नजर की जिससे उसे पहचाना जा सके श्री बृजमोहन द्विवेदी ने लालसोट के इतिहास के माध्यम से हमारे आसपास पसरे इन नायाब तोहफों को पहचानने की नजर प्रदान करने का काम किया है ।
दरअस्ल समीक्ष्य पुस्तक के माध्यम से लालसोट के इतिहास के साथ साथ शोधपरक प्रामाणिक सूचनाऐं अत्यंत सरस और रोचक ढंग से प्रस्तूत करने में लेखक ने कामयाबी हासिल की है उन्होंने लालसोट जैसे छोटे से स्थान को लेकर यह ’शोधपरक कार्य किया और सफल भी हुए । नतीजतन लालसोट के दुर्गम बीहड़ और विस्तृत क्षेत्र में व्याप्त धार्मिक , सांस्कृतिक और सामाजिक रीति रिवाज परत दर परत हमारे सामने खुलते चले गये । महत्वपूर्ण घटनाये और इतिहास के ब्योरे एक एक कर हमारे सामने बेपर्दा होते चले गये । क्षेत्र का हेला खयाल दंगल , गणगौर की सवारी , दादूपंथी जमात और मंदिरों के साथ साथ ताजियों का वर्णन लालसोट में व्याप्त धार्मिक समरसता और सांस्कृतिक एकता का मार्ग प्रशस्त करता है । क्षेत्र के विकास में योगदान देने वाले श्रेष्ठजनों के ब्योरे भी अंकित करने का प्रयास लेखक ने किया हैं ।
समीक्ष्य पुस्तक मे कुल जमा दस अध्यास समाहित हैं जिनमें सम्पूर्ण लालसोट को समेटने का प्रयास किया गया है इनमें प्रमुख हैं ‘‘युद्धों की भूमि - अंधेरी पगडंडी’’, ‘‘अतीत के दो हजार वर्ष’’, ‘‘आध्यात्मिक आंदोलन’’ और ‘‘स्वतंत्रता आंदोलन’’ इसके अतिरिक्त लालसोट की कुछ झलकियां भी लेखक ने देने का प्रयास किया है, देखें
‘‘सीरो म्हारै कोस दंकोस्यो, पूआ कोस बारा । जो सुण पांऊ लाडू की तो, दौडूं कोस अठारा ।।’’
कहते हैं पच्चीस तीस वर्ष पूर्व देसी घी का जमाना था चाहे श्री बिनौरी हनुमान जी के किसी की तरफ से चोटी जड़ूले हो या माताजी की सवामणी हो तीन तीन कोस तक रसोई जीमणे पैदल ही दौड़ पड़ते और लौट आते थे जबकि आज लोग पड़ोस में होने वाले भोजन कार्यक्रम में जाने से कतराते हैं (पृष्ठ 108)
समीक्ष्य पुस्तक में लेखक ने क्षेत्र में मनाये जाने वाले बार त्यौहारों का बड़ी ही बारीकी से अध्ययन मनन किया है साँझा पूजन करने वाली युवतियों द्वारा गाये जाने वाला गीत है ‘‘कर बाई , साँझा आरती , आरतड्या में - हीरा मेलूं , मोती मेलूं रोक रूपया मेलॅं , राजाजी की कोयल मेलू रानीजी को सूवो मेलूं , पाँच मोहर पाटा पे मेलूं कर बाई साँझा आरती , कर बाई सूरज की भेण आरत्यो , चंदा की बाई आरत्यो ( पृष्ठ 76)
इसी तरह लालसोट निवासी हजारी लाल ग्रामीण की रचना ‘‘म्हारा प्यारो राजस्थान ’’
....कस केसरियो साफो सर पे , चाले छाती ताण ,
बांकी बांकी मुछड़ल्या रा , बांका बांका जवान ,
म्हारा प्यारा राजस्थान ।
....तू राणा री जन्म भूमि दुर्गादास रो देस ,
बापोती बाप्पा रावल री , हजारी रो हृदयेस ,
म्हारा प्यारा राजस्थान ’’ ( पृष्ठ 115 )
ब्रजमोहन द्विवेदी ने इतिहास को जानने पहचानने का यत्किंचित प्रयास करते हुए कहा
‘‘लोक में
जिनके नाम की चर्चा है
क्षुद्र सीमाओं को लांघकर
जिनकी प्रशस्तियां लिपिबद्ध हैं
इतिहास वहीं है ।
उन पृष्ठों में
तुम ! कहीं विराम ।
अद्र्ध विराम भी बन सको तो
धन्यवाद !’’ (आमुख)
समीक्ष्य पुस्तक के लेखन ब्रजमोहन द्विवेदी ने अथक परिश्रम से इतिहास प्रेमियों और सहृदय पाठकों को ‘‘लालसोट का इतिहास ’’ के रूप में लालसोट को जानने समझने की एक नायाब कुंजी प्रदान की है जो सुधी पाठकों के लिए संग्रहणीय ग्रंथ साबित होगी ।
लालसोट का इतिहास-लेखक ब्रजमोहन द्विवेदी (नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली) मूल्य 250- पृष्ठ 130
If you have a PDF copy of this book, we can use it to make a wikipedia page, using geo-tagging with google/bing maps.
ReplyDeleteAlso, augmented reality can be used (though, I am not sure, how to do it).
Lalsot ki shaan hazari LAL JI gramin
ReplyDeleteLalsot ki shaan hazari LAL JI gramin
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