Wednesday, December 18, 2013

मुक्ति

सांसारिक सुख की वर्षा में,
कुछ देर के लिए भूलने का प्रयास,
अपने दुःख को या अपने आप को,
पुनः पुनः लौटा देता है,
व्यक्ति को वही पर,
उदासी छाने लगती है,
शाश्वत बेचैनी एक बार फिर,
घेर लेती है। 

अपने मन में याद करता है,
बीते हुए अच्छे पलों को,
एक मुस्कराहट छा जाती है,
मन में जाग जाती है एक उमंग,
मन खोने लगता है, यादों में,
लेकिन फिर कुछ देर बाद,
पुनः आ जाता है वर्तमान में,
नहीं - नहीं,
फिर खो जाता है किसी और पुरानी याद में,
या कोई आशंका का सर्प फुँकार उठता है,
भीतर कोई तुलना या ईर्ष्या का दावानल,
प्रज्ज्वलित हो उठता है,
और शुरू हो जाता है एक नया दौर,
शिकायत का,
अथवा अपने दुर्भाग्य को कोसने का। 

कभी वर्तमान पर ध्यान चला जाता है,
कोई भी तो कष्ट नहीं है अभी इस समय,
अतीत या भविष्य में ही हैं सारे दुःख,
वर्तमान में है दुःख का अभाव,
यही तो है सच में सुख,
जिसे कहते है आनंद । 

लेकिन ध्यान वर्तमान में ठहरता नहीं,
दुःख दूर करने का प्रयास शुरू हो जाता है,
खुद को अच्छा बुरा समझाता है,
व्यक्ति स्वयं और आस पास के सभी लोग,
तथाकथित अपने है जो,
मित्र, साथी और सम्बन्धी, परिवार जन और कुटुम्बी,
कहते हैं कि हमें क्या है,
हम तो तुम्हारे भले के लिए कह रहे है,
भविष्य में समझ आएगा तो पछताओगे। 
ऐसे में प्रश्न यही कि,
अपने कर्त्तव्य का पालन कैसे होगा। 

कर्त्तव्य का पालन सभी करना चाहते हैं ,
पर कर्त्तव्य का निर्धारण नहीं कर पाते हैं। 
कर्मफल के आधार पर निर्धारण,
या अपनों की इच्छा के आधार पर निर्धारण,
या अपनी इच्छा के आधार पर निर्धारण,
या अपने अहंकार के आधार पर निर्धारण,
कुछ भी कर्त्तव्य को नहीं बतलाता है। 
कर्त्तव्य तो व्यक्ति की स्थिति और 
प्रारब्ध से प्राप्त परिस्थिति के अनुसार,
निर्धारित होता है। 
अंतिम लक्ष्य सब का है भगवत प्राप्ति,
कर्त्तव्य का उद्देश्य सदैव,
करने के वेग की शांति। 
दूसरों के हित के लिए काम करें ,
ऐसा प्रयास देता है शांति। 

लेकिन तन और मन को होने लगती है थकान,
अतः मन भी चाहता है कुछ मनोरंजन,
अहंकार से उत्पन्न होते है विकार,
जो करते है सांसारिक सुखों में आकर्षित,
तर्क जाग उठता है,
संसार परमात्मा ने बनाया है आनंद के लिए,
प्रारब्ध के अनुसार सभी पाते हैं सुख दुःख,
अर्थ और काम से दूर हों किसलिए ?
त्याग के पश्चात, अपने भाग का उपभोग,
भला अनुचित कैसे होगा ?
सांसारिक सुखों को पाने का प्रयास,
भला अनुचित क्यों कर होगा। 

भगवत्प्राप्ति 
है परम आनंद कि स्थिति,
इसे पाने के बाद कोई आकर्षण नहीं रह जाता है,
इस संसार के सुखो में कोई रस नहीं बच जाता है,
तम , रज और सत्व, तीनो गुणो के परे,
है आनंद का महासमुद्र, 
जिसे पाने के लिए जीव  है बेचैन, उदास, लालायित,
लेकिन उससे पहले जीव को संसार के सुखो से वैराग चाहिए,
क्योंकि 
त्याग ना टिके रे वैराग बिना, करिये कोटि उपाय जी। 

प्रयास पूर्वक त्याग से हल नहीं होता है,
कुछ मदद मिलती है,
पुरानी आदतो को छोड़ने के लिए,
सुख भोग के समय विचार पूर्वक जागरण,
देता है आकर्षण से मुक्ति,
लेकिन दृढ अभ्यास है, पिछले अनेक जन्मों का,
स्वेच्छा से, बलात और अनायास भोगे हुए सुखों का,
स्वप्न की भाँति जीते रहने का,
कि जागरण नहीं रह पाता है हर समय। 

विषय चिंतन के समय से ही जागृति क्षीण होने लगती है,
आसक्ति मन पर छा जाती है, कामना प्रबल होने लगती है,
ऐसे में सुख भोग में जागरण रहता नहीं,
और वैराग्य की अग्नि प्रज्जवलित होती नहीं,
मान्यता से उत्पन्न हुआ दुःख,
माने हुए सुख के द्वारा भुला दिया जाता है,
कुछ देर के लिए मन प्रसन्न हो जाता है,
और अगले दुःख के लिए तैयार हो जाता है,
जैसे कोई श्रमिक बीड़ी के धुएँ में थकान मिटाकर,
पुनः काम में लग जाता है। 

इस दुःख से दग्ध मन पर संसार के सुख की बूँद,
गर्म तवे पर छन्न से गिरने वाली बूँद की तरह,
लुप्त हो जाती है,
कभी सुख वर्षा भी हो जाये तो, 
निरंतर जलती दुःख की आग बुझ नहीं पाती है। 
फिर भी, जैसे
चन्द्रमा की उपस्थिति में गिरने वाली ओस की बूंदे,
तन मन को शीतल कर देती है,
वैसे ही सदगुरु की उपस्थिति में, सत्संग में,
आनंद की वर्षा हो जाती है। 
लेकिन दुःख की आग को सदा के लिए मिटाना है तो,
गुरु से प्रार्थना यही कि,
आपकी कृपा से मिले, विषय चिंतन रुपी ईधन से मुक्ति,
दुःख अग्नि हो जायेगी शान्त, एक मात्र राह है शरणागति। 


Thursday, October 17, 2013

एक ही आस

मैं शरीर नहीं हूँ।
आता है समझ में कि मेरा शरीर बदलता रहा,
बचपन, जवानी और प्रोढ़ावस्था में,
मैं तो नहीं बदला, मैं तो वही हूँ।

मैं सुक्ष्म शरीर भी नहीं हूँ।
जब मुझे दिखाई देते हैं,
मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार,
देखने वाला रहता है इनके पार ,
जो देता है दिखाई, वह स्वयं नहीं हो सकता,
इसीलिए सुक्ष्म शरीर मेरा अस्तित्व नहीं हो सकता।

कारण शरीर कहते हैं कि
स्वभाव है, अज्ञान है, प्रकृति है,
इसके विषय में समझने से लाभ कम,
अधिक भ्रान्ति है।
अतः जानने वाला यह नहीं हो सकता,
इतना समझ लेना ही काफी है।

जो जानता है,
जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति को,
जो देख सकता है इन सभी को,
जिसको देखना संभव नहीं,
जिसके लिए सभी दृश्य है,
क्या है स्वयं दृष्टि वही,
दृष्टा जैसा कोई नहीं, जानने वाला भी नहीं,
उसमे स्थित होने जैसी कोई स्थिति भी नहीं,
शुन्य यदि नहीं भी हो, कोई सीमा भी नहीं।
असीमितता का बोध होता है,
सर्वज्ञता या सर्वशक्तिमता का नहीं।

यदि मन के प्रति नहीं है साक्षी भाव,
मन विषय-चितन से बढ़ जाता है, आसक्ति की ओर,
आसक्ति से बढ़ जाता है, कामना की ओर,
कामना से उत्पन्न होता है लोभ, अंततः क्रोध,
क्रोध से संमोह, स्मृति लोप, अंततः विनाश।
यदि साक्षी भाव बना रहे,
विषय चिंतन, आसक्ति या कामना के स्तर से,
संभव है मन का पुनः शांत अवस्था में लौट जाना,
साक्षी के रूप में मन की स्थिति को देख पाना,
लेकिन इसके बाद प्रकृति का है साम्राज्य,
विनाश के बाद ही जाग सकता है पश्चाताप,
परिणाम हो सकता है साधना के प्रति आग्रह,
और दृढ हो सकता है साक्षी भाव।

लेकिन यह मन क्यों चाहता है,
वासना के भंवर में डूबना बार बार,
दुःख के निश्चित अंत की ओर बढ़ता है बार बार,
स्वयं की नज़रों में होता है शर्मसार।
क्यों चाहता है देखे और आजमाए हुए,
अनेको बार ठोकर खाए हुए,
उन्ही दुष्चक्रो से गुजरना बार बार ?
लगता है कि एक अदम्य आकर्षण है दुःख में,
जो आता है सुख का नकाब  ओढ़ कर। 
लोभ और संग्रह परिणाम है कामनापूर्ति का,
और क्रोध परिणाम है कामना अपूर्ति का,
दुःख है एक सा परिणाम दोनों का। 

संयोग से प्राप्त प्रत्येक सुख,
है मात्र एक आभास,
क्योंकि समय के चक्र में,
वियोग भी खड़ा है पास। 
वियोग की निश्चितता कर देती है दुःख को भी निश्चित,
नहीं रहने देती है, इस मर्त्य जगत में, कभी निश्चिन्त। 

समझ सब आने पर भी क्या कुछ भी समझ नहीं आता है,
चित्त में संग्रहित संस्कार, आदत ही बन जाता है। 
कौन चाहता है? संसार के सुखों में  बने रहना,
निश्चित दुःख की राह में आगे बढ़ते रहना,
"मन" जो कि संसार का प्रतिरूप है,
अमन होना ही स्वयं का स्वरुप है। 

लगता है कि चुनाव कुछ कठिन नहीं है -
दुःख और सुख दोनों ही एक समान है,
अतः साक्षी भाव ही एक मात्र समाधान है। 
लेकिन यह भी सदा कहाँ रह पाता है,
ऐसे में मुझे तो बस एक मार्ग नजर आता है,
ले लो शरण अपने गुरु या ईश्वर की,
कृपा जो करते है सदा अहैतुकी। 

समर्पण ही यात्रा की शुरुआत करता है,
और यही यात्रा को आगे बढाता है,
और इसी से हो जायेगा यात्रा का समापन,
गुरुदेव की कृपा से मिलता रहे मार्गदर्शन। 
अपने गुरु के दर्शन, क्या मात्र शरीर के दर्शन हैं,
परमात्मा भी प्रकट होने के लिये लेते आश्रय है,
योगमाया के बिना संसार प्रकट नहीं होता है,
गुरु के रूप में ही परमात्मा का दर्शन यहाँ होता है। 
जो सर्वव्याप्त है, वह तो स्वयं में भी मिल जायेगा,
जब गुरु की कृपा होगी, खुद ही प्रकट हो जायेगा। 

मेरे गुरु ने कब चाहा कि कोई आये उनके पास,
करो जी भर कर संदेह, नहीं कहा, करो विश्वास,
जब स्वयं का संदेह श्रद्धा में परिणत हो जाता है,
प्रत्यक्ष ही स्वयं, प्रमाण बन जाता है। 
भगवत प्राप्ति और आत्म-ज्ञान अच्छे शब्द लगते है,
दुःख मिट जाये सदा के लिए, अतः करणीय लगते है,
यह करने से होगा नहीं और बिना किये होगा नहीं,
समर्पण ही है करने को, इसके सिवा कुछ भी नहीं,
शेष सभी मात्र कृपा से, संभव होता है,
मेरे अनुभव में तो समर्पण भी कृपा से ही होता है। 

अतः गुरुदेव कृपा करो, अवश मुझे रहने दो,
चरणों का दास बना लो, सृष्टि का साम्राज्य रहने दो। 
दृष्टि ही प्रकाश है, नित्य का अनुभव बन जाये,
जो क्षण का मोक्ष मिलता है, सदा का अनुभव बन जाये। 
लेकिन मुझे तो नहीं पता, कि क्या करूं प्रयास,
प्रयोग कर रहा निरंतर, आप सदा रहो पास। 
आपका साथ के अतिरिक्त कोई मांग नहीं,
एक ही आस गुरुदेव की, दूजी कोई आस नहीं।

Friday, September 20, 2013

शरणागति

जो है, जैसा है, उसे स्वीकार करना सर्वोत्तम विधान है।
ईश्वर की कृपा सदा, यह स्वीकार करता अभिमान है।
ऐसा ही अपने बारे में सोचता रह गया,
अपने अवगुणों को भी विधान मानता रहा।
करता रहा सारे कर्म, यही मन में विश्वास लिए,
जन्म हुआ इन कामना के साथ, इनकी पूर्ति के लिए।
काश इस जन्म में यह कामना पूर्ण हो जाये,
ताकि अगले जन्म में इससे मुक्ति हो जाये।

सुख मिलता तो उसे भी विधान मान लेता था,
दुःख मिलता था, उसे भी स्वीकार कर लेता था,
सोचता था मानव जीवन दुःख सुख से है भरा हुआ,
कामना, दुःख और सुख का साथ सदा जुड़ा हुआ।
इसलिये जो बन सके वह सेवा करो,
अपने मन को सुख मिले ऐसा सदा काम करो।
जीवन के साथ कोई विकार सदा रहता है,
इसीलिए जीव शरीर में स्थित रहता है।
विकार से मुक्ति ही, जीवन से मुक्ति भी होगी,
मृत्यु के पहले तो, यह मन की ही स्थिति होगी।
प्रवृत्ति का परिणाम एक दिन निवृत्ति होगा,
अगले जन्म में मुक्ति, लाभ यह निश्चित होगा।

पढ़कर पुस्तके अनेक, जानकारी प्राप्त करता रहा,
अपने आपको औरो से ज्ञानी समझता रहा,
देता रहा सलाह अनेक, शेखी बघारता रहा,
अपनी समझ से लोगो को, राह दिखाता रहा।
कुछ अपने कर्म से, और कुछ दैव कृपा से,
करते रहे प्रगति जीवन में, बढ़ते रहे आगे।
मुझे भी लगता रहा, कि मेरी सलाह ठीक रही,
समझदार हूँ, ऐसी ही सोच बनती रही।

जब बचपन में पढ़ता बात मोक्ष की,
तो मन में लगता कि ऐसा होता होगा,
लेकिन मिलकर तथाकथित गुरुओ से,
लगा कि यह मृत्यु के बाद होता होगा।
लाखो शिष्य थे, फिर भी कामना बाकी थी,
धन की कमी नहीं,लेकिन इच्छा तो बची थी,
जो कुटिया में रहते, वो भी कुछ चाहते थे,
जो गृहस्थ थे, वो भी पार न हुए थे।
जो परमात्मा सदैव प्राप्त, उनकी अप्राप्ति तो न होगी,
लेकिन कामना यदि साथ थी, तो मोक्ष की स्थिति भी न होगी।

ऐसे में मुझसे हो जाता यह गुरुतर अपराध,
इस संस्कृति में जन्म, जानकारी पाने के बाद।
कहता रह जाता, परम आनंद मन की स्थिति मात्र है,
मनोविज्ञान के चरम पर भारतीय ज्ञान है।
व्यक्ति के मन में भय और लोभ है,
परम आनंद की लालसा लोभ का उत्कर्ष है,
भय है मृत्यु का, शरीर छूट जाने का,
मोक्ष उस भय से मुक्ति का उपाय है।

व्यक्ति चाहता है, जीवन में ऐसा कोई सहारा,
जो सदा साथ रहे, और दुःख सुने हमारा,
जिसकी कोई मांग न हो, कोई जिम्मेदारी न हमपर हो,
काम कर दे सब हमारे, हमसे पहले मृत्यु न हो।
ऐसा सोचकर बनाया मानव ने ईश्वर को,
और उसी का उपयोग करके रच दिया धर्म को।

ताकि मानव मानवों का शोषण करता रहे,
अपने पाप का भार, शोषित के पूर्व जन्मो पर डालता रहे,
साथ देते रहे पण्डे पुरोहित भी ऐसे दानव का,
धर्म के नाम पर शोषण करते रहे जन जन का।

कर्मयोग के नाम पर अपना ली अकर्मण्यता ,
समता नहीं करते प्रभु, इसलिए आर्थिक विषमता,
कहानियाँ अति सुन्दर, दान और पुण्य की सुनाई हमने,
वर्ण भेद और जाति भेद कि खाई बनाई हमने।

मुझे जीवन में ऐसा ही रह जाना था,
लेकिन ईश्वरीय कृपा को जीवन में आना था,
मेरे अति दयालू गुरुदेव ने कृपा की,
मुझसे मिलने को कैसी लीला रची।
उनके सामने आने पर धर्म साकार हो गया,
सूर्य के सामने बादल तिरोहित हो गया,
जान लिया कि मोक्ष होता है जीवन में,
सत्य है परम आनंद, मिलता इसी जीवन में,
मृत्यु से मुक्ति का नहीं कोई सम्बन्ध है,
मन के पार है, जहाँ न मन का कोई बन्ध है।

मेरे गुरुदेव ने रक्षा की इस गुरुतर अपराध से,
जाग्रत किया विवेक को, प्यार और दुलार से।
माता की तरह, प्रेम बस करते रहे,
अनगिनत गलतियाँ, माफ़ बस करते रहे।
उनकी उपस्थिति मात्र से सब बदल जाता है,
पत्थर भी गंगा में शालिग्राम हो जाता है।

जाना कि सर्वोत्तम विधान है शरणागति,
ईश्वर के विधान को समझने योग्य नहीं मति।
अपनी बुद्धि से सिर्फ वो समझ में आता है,
जो कामना से भरा मन समझाता है,
बुद्धि तो वैश्या  है, सती नहीं होती है,
यह तो मन के अनुरूप वर का चयन करती है।

ऐसे में विकारो से रक्षा करते है गुरुदेव,
उनसे प्रार्थना मात्र से टल जाते है दैव,
आकर्षण मन का इतना है, बुद्धि के तर्क अनेक है,
गुरु से प्रार्थना ही ऐसे में, राह मात्र एक है।
हो सकता है कि उनको कष्ट होता हो मेरी रक्षा में,
लेकिन मैं उनकी शरण,  लाज नहीं मुझे भिक्षा में,
वो जो चाहे करे, मुझे तो न ज्ञान चाहिये और न ही आनंद,
उनकी याद से, मिट जाते है दुःख, यही मेरे लिए परमानन्द।

विवेक हो जाग्रत, तो व्यर्थ हो जाती है बुद्धि,
जब प्रभु हो समक्ष, चाहिये मात्र शरणागति।

Monday, September 9, 2013

मृत्यु के पार

जीवन के सारे सम्बन्ध है, अपेक्षा आधारित।
सापेक्ष यह संसार है, सभी कुछ यहाँ सापेक्षिक। 
अपेक्षा के कारण ही कुछ ऐसा घटता यहाँ। 
स्वयं का प्रयत्न अधिक, प्रतिदान कम लगता सदा। 

प्रकृति का विधान ही कुछ ऐसा होता है। 
जो सापेक्षिक, वही प्राकृतिक कहलाता है। 
परमात्मा भी जीव से करते अपेक्षा कर्तव्यपालन की,
करते स्वयं व्यवस्था यहाँ , उसके जीवन यापन की। 

स्वयं ही लीला करते, स्वयं से ही जीव बनाते,
स्वयं से ही रचते संसार, स्वयं ही सब बन जाते। 
ध्यान रखते सदा, जीव को, ठहरने न देते कहीं भी,
पशु योनि में दुःख विहीन, पर देते मनुष्य योनि भी।

अवसर देते उसे अपनी प्रकृति में विकास करने का,
विकसित मस्तिष्क में भाव भर देते अहंकार का।
यही अहंकार, प्रेरित करता कुछ भी कर देने को,
स्मृति के माध्यम से नया इतिहास रचने को। 

मृत्यु की शाश्वत चुनौती, परमात्मा ने यहाँ रची,
परिवर्तन के आधार पर, उन्होंने यह सृष्टि रची। 
इसी मृत्यु के पार जाने के मानवीय प्रयास ने 
दिया जन्म हर विशाल स्थापत्य कलाकृति को,
ज्ञान से भरी कालजयी साहित्यिक कृति को,
समाज को दिशा देती ऐतिहासिक काव्य कृति को। 
प्रकृति को विजय करते वैज्ञानिक आविष्कार को,
मन का हरण करने वाले महान कलाकार को,
विश्व विजेता कीर्तिमान चक्रवर्ती सम्राट को,
ऐसा लगे कि जैसे मनुष्य रचता हो विराट को। 

लेकिन ऐसा हर प्रयास काल के आगे निष्फल हुआ,
अवशेष रहे, या कहीं मात्र स्मृति में अवशेष रहा। 
भारत में अद्भुत प्रयास हुए यह जानने को,
अनेक शताब्दियों तक रहस्य पाने को। 
कैसे मानव पार करे मृत्यु की सीमा को,
कैसे जाने जो शेष कर सकता हो मृत्यु को। 

जीवन तो मृत्यु को प्राप्त करेगा यह सत्य है,
जो मृत्यु को पार करे, वो जीवन मुक्त है। 
यदि जीवन से मुक्ति की राह मिल सकती है,
तो मृत्यु के भय से मुक्ति मिल सकती है। 
लेकिन जाना होगा प्रकृति के पार,
यह शक्ति परमात्मा की, है अनंत अपार। 

प्रकृति के नियंता है परमात्मा,
प्रकृति के पार है परमात्मा,
प्रकृति के हर कण में भी है परमात्मा,
इसी लिए सबके पास है परमात्मा। 

जीव, नियंता का अंश होने से, प्रकृति से परे है। 
उसी के समान, अपेक्षा और सांसारिकता से परे है। 
प्रकृति के अनुरूप व्यवहार, देह व मन का धर्मं है। 
मृत्यु के पार शुद्ध आनंद , जीव का स्वधर्म है। 

लेकिन मनुष्य फिर रहा अपेक्षाओ का भार लिए,
अपने और अपने साथी के दुःख का प्रबंध लिए। 
अपेक्षा के कारण, उसे अन्य कृपण नजर आता है। 
स्वयं में उदारता, औरो में दोष नजर आता है। 

निरपेक्ष परमात्मा का अंश जीव, शरीर को जानता है ऐसे,
घड़े में भरा पानी अपने को, घड़े से पहचानता हो जैसे। 

संसार ने पूछा बचपन में, तू कौन है, 
तेरा क्या नाम है, तेरी क्या पहचान है ?
अपने देह से जाना स्वयं को, इसी से ऐसा माना,
सबसे नाता जोड़ा इसी ने, इसी को अपना जाना। 
 
लेकिन हर सम्बन्ध अपेक्षा से भरा हुआ था,
स्वयं का मन भी कामनाओ से भर रहा था। 
प्रारब्ध समाया हुआ चित्त में, प्रेरित कर रहा था,
अहंकार प्रेरित बुद्धि से जीवन चल रहा था। 

लेकिन यह सुख की और बढ़ते कदम,
दुःख के जाल में उलझ जाते है,
परमात्मा निश्चित ही, जीव को,
ऐसे भुलावे में न छोड़ पाते है। 
करते है कृपा जीव पर, उसे दुःख देकर,
याद दिलाते है अपनी, उसे तडपा कर। 

यहाँ तुम यह नास्तिक प्रश्न, मत पूछ लेना,
जब जीव को सुख में मजा, दुःख क्यों वे देते भला?
-यदि वो ऐसा करते है, तो यह उनकी लीला है,
-अनंत परमात्मा की  प्रकृति में जीव की अनंत यात्रा है। 
यहाँ से विकसित जीव किस लोक में जाते है?
-क्या वैज्ञानिक भी इस सृष्टि का पार पाते है?
जब  वैज्ञानिक उपलब्धि सभी को मिल जाती है। 
यह अध्यात्म की बात, व्यक्तिगत क्यों रह जाती है ?
-साथ सिर्फ संसार में, आगे की यात्रा अकेले ही होती है,
-हर व्यक्ति का इतिहास भिन्न, प्रकृति में नक़ल नहीं होती है। 
यदि सब कुछ यहाँ करते मानव, परमात्मा की कृपा क्या है?
-तू अदना सा मिटटी का पुतला, यह सवाल करे, यह और क्या है ?

परमात्मा जीव की करते रक्षा अपनी बनाई प्रकृति से,
मानव को दिया अवसर कि छेड कर सके प्रकृति से। 
मानव को स्वतन्त्र बनाया, लीला करने के लिए,
वो सदा आनंदमय, देंगे कष्ट क्या करने के लिए ?
यह खेल है जो प्रकृति और पुरुष में चलता रहता है,
असीमित का अंश भी प्रकृति के वश में आता रहता है। 

वह अपने अंशी को भूलकर प्रकृति में रम जाता है,
प्रकृति माया है, इसको पाश से बांधने  में मजा आता है। 
महा ठगिनी है, यह अनेको रूप लेती है,
परमात्मा के अंश को भी भ्रमित कर देती है। 

अंश ही अंशी के अस्तित्व पर सवाल उठा देता है। 
प्रकृति को भी वश में करने का सपना देख लेता है। 
लेकिन परमात्मा के विधान के आगे प्रकृति विवश है,
मृत्यु की निश्चितता, के आगे किसी का नहीं वश है। 

ऐसे में मानुष को दिया गया यह परमात्मा का विवेक,
कर सकता है उसका इस जीवन में भला मात्र एक। 
वह अपने अस्तित्व के वास्तविक स्वरुप को पहचान ले,
मृत्यु के परे, अपने अंशी से अपनी एकता को जान ले। 

पा सकता है इस माया रूपी ठगिनी से मुक्ति,
यदि स्वीकार कर ले, ईश्वर या गुरु की शरणागति। 
वर्ना भी कोई बड़ा नुकसान नहीं होता है,
कुछ लाख जन्म, कुछ और कष्ट, आना फिर भी होता है। 
इस जगत के विधालय से कभी तो लेनी है मुक्ति,
कितनी बार अनुत्तीर्ण होना, निश्चय करो यथा मति। 

मुझे तो गुरुदेव समझ अब आता नहीं,
ज्ञान भी और अब, बुद्धि में समाता नहीं,
आप करो कृपा और दे दो आशीर्वाद,
उत्तीर्ण भले न हो, लेकिन आपका साथ मिले निर्बाध। 

Wednesday, August 28, 2013

मेरे तो गुरुदेव, आप ही तारणहार

मेरे तो गुरुदेव, आप ही तारणहार । 

भले बुरे की समझ भी नाही, ना आचार विचार । 
मेरे तो गुरुदेव, आप ही तारणहार । 

भगति विरति माला जप नाही, आप एक आधार । 
मेरे तो गुरुदेव, आप ही प्राणाधार । 

पोथी पुराण ज्ञान कुछ नाही , ना प्रेम व्यवहार । 
मेरे तो गुरुदेव, आप ही तारणहार । 

सत रज तमस समझ कछु नाही , आप एक आधार । 
मेरे तो गुरुदेव, आप ही प्राणाधार । 

प्राण शक्ति और चिति शक्ति का, जानूँ नहीं व्यापार । 
मेरे तो गुरुदेव, आप ही तारणहार । 

राम न देख्या, कृष्ण न देख्या, न देख्या सिरजनहार । 
मेरे तो गुरुदेव, आप ही प्राणाधार । 

Wednesday, August 7, 2013

गुरुदेव - एक भजन

मेरे तो गुरुदेव एक बस, आप ही तारणहार। 

भले बुरे की समझ भी नाही, ना आचार विचार,
भगति विरति माला जप नाही, एक आप आधार। 

मेरे तो गुरुदेव एक बस, आप ही तारणहार। 

पोथी पुराण ज्ञान कुछ नाही , ना प्रेम व्यवहार ,
सत रज तमस समझ कछु नाही , एक आप आधार। 

मेरे तो गुरुदेव एक बस, आप ही तारणहार। 

प्राण शक्ति और चिति शक्ति का, जानूँ नहीं व्यापार,
राम न देख्या, कृष्ण न देख्या, न देख्या सिरजनहार,

मेरे तो गुरुदेव एक बस, आप ही प्राणाधार । 
मेरे तो गुरुदेव एक बस, आप ही प्राणाधार । 

Monday, August 5, 2013

धर्मं

चैतन्य, शुद्ध ज्ञान आवृत हुआ अज्ञान से,
लिपट गया प्रकृति से, बद्ध हुआ मायिक पाश से।
ऐसा उसे प्रतीत हुआ, यह भला क्यों संभव हुआ ?
प्रकृति शक्ति चैतन्य की, इसीलिए ऐसा हुआ।

बादल सूर्य को भला कहाँ ढ़कता है ?
सम्पूर्ण पृथ्वी पर अँधेरा कहाँ होता है ?
प्रकृति के चक्र से संचारित सभी जीव है,
पाश से बंधे पशु, स्वंतत्र  मानव शरीर है।
मानव की यात्रा भी तम  से सत की ओर है,
इसी के विभिन्न तलों पर सारे मानव शरीर है।

चैतन्य का प्रकाश चित्त से परावर्तित निरंतर हो रहा,
जैसे चन्द्रमा को सूर्य, प्रकाशित निरंतर कर रहा।
रात्रि में लगता है कि चन्द्रमा स्वयं प्रकाशित है,
धवल शुद्ध चाँदनी से मन कितना आनंदित है।
ठीक इसी प्रकार चित्त से प्रकाशित है हमारे दिन रात,
इसी को मुनि कहते निशा, जागरण से होगा प्रभात।
सूर्य है मानो आत्मा, और चित्त है मानो चन्द्रमा,
चित्त और चैतन्य का अंतर, जान ले यदि जीवात्मा।
चैतन्य से प्रकाशित हो जाते है उसके सभी कर्म,
मानव देह मे परमात्मा का अवतरण ही है धर्म।

परमात्मा स्वयं हुए प्रकट संसार के रूप में,
उन्ही की अभिव्यक्ति है, प्रकृति प्रकट रूप में,
आत्मा की अभिव्यक्ति ही, सारे शरीर है,
आत्मा है निराकार, साकार रूप शरीर है।

 मूल स्वरूप सदा आनंदित, चित्त क्यों दुःख कर रहा ?
अहंकार के वशीभूत, स्वयं को कर्ता समझ रहा।
सीमित कर लिया स्वयं को शरीर की सीमा में,
शरीर से मैं और शरीर से जुड़े वो मेरा, यह जाना इसने।
मै और मेरे की सीमा, शरीर के साथ रहेगी सदा,
मैं गिरते ही, मेरे की भी, चिंता क्यों होगी भला ?

दुःख के मध्य सुख का आभास यात्रा को आगे बढाता है,
निरंतर सुख की खोज में, व्यक्ति अध्यात्म में, चला आता है।
अध्यात्म में प्रगति, समर्थ गुरु के बिना संभव नहीं,
जो मुक्त हो स्वयं, उसकी करुणा से ही, संभव यही।
गुरु की करुणा और कृपा जिन्हें मिल पाती है,
यात्रा इस दिशा में, उनकी संभव हो पाती है।

मानव शरीर मिला, रूचि जगी अध्यात्म की ओर,
गुरु भी मिल गए, भगवत कृपा का ओर न छोर।
इस अनंत कृपा के प्रवाह में जो भीग रहे है,
निर्वाण के बिना ही सुख का अनुभव कर रहे है।

भाव ही है महत्वपूर्ण, क्रिया कुछ अधिक नहीं,
निषेध का ही है महत्व, करने से कुछ होता नहीं।
करने से कुछ होता नहीं, और बिना किये होगा नहीं,
यह निषेध के लिए कहा, ध्यान देना है यही।
जो एक अक्षर न पढ़े, या नाम न सुने, वह भी पा सकता है,
यदि निषेध का पालन करे, कर्त्तव्य सदा कर सकता है।
लेकिन ऐसा हर प्रयास सफल नहीं हो पाता है,
इसीलिए समर्थ गुरु करुणा से राह दिखलाता है।

हे नाथ ! मैं भुलूँ नहीं, अपना सम्बन्ध जोड़ लो,
परमात्मा एक परिकल्पना, सीमित से असीम को जोड़ लो।
गुरु एक द्वार है, जो जुड़ चुका है असीम से,
गुजर जाओ इससे यदि, तुम भी जुड़ो असीम से।
गुजरने का अर्थ है पूर्ण समर्पण,
आज्ञापालन और अहंकार का अर्पण।
ऐसा होते ही हो जाएगा निर्वाण, शरीर भले चलता रहे,
प्रारब्ध से निर्मित हुआ, अपना समय पूरा करता रहे।

गुरु का मिलना परम सौभाग्य की शुरुआत है,
समर्पण गुरु के प्रति, यात्रा की शुरुआत है।
जिस अनुपात में गुरु के प्रति बढता रहे समर्पण,
यात्रा भी बढ़ती रहे, सुख का होता रहे संवर्धन।
यह अध्यात्म त्याग का मार्ग है, इसका विचित्र प्रभाव है,
भौतिक जीवन भी प्रकाशित, बढ़ता आनंद का भाव है।
होगा भला क्यों नहीं, यह जगत क्या कुछ और है,
उसी परमात्मा का प्रकाश, यहाँ फैला चहुँओर है।
सुख दुःख, आनंद विषाद, सभी कुछ भ्रान्ति है,
वास्तविक स्वरूप तो मात्र ज्ञान, आनंद, पूर्ण शांति है।

Tuesday, May 28, 2013

पुणे से रामेश्वरम यात्रा










29 May 2013
 from Jaipur to Pune by flight

2 June 2013




 Start roadjourney from Pune to Rameshwaram



332 kms Bijapur - Gol gumbad




123 kms Pattadkal - UNESCO World Heritage Site





134 kms Hampi - UNESCO World Heritage Site


4 June 2013

344 kms Shravanbelgola - Bahubali



  83 kms Mysore - Historical Palace & fountains


6 June 2013


387 kms Madurai - Meenakshi Temple


granite pillars supporting the corridor in the precinct of Ramanathaswamy Temple.

170 kms Rameshwaram

8 June 2013



237 kms Tanjavur - UNESCO World Heritage Site

9 June 2013

 91 kms Kumbhkonam - Temples


 79 kms Chidambaram - Temple





69 kms Puducherry

11 June 2013
160 kms Vellore





124 kms Tirupati

12 June 2013



162 kms Chennai





54 kms Mahabalipuram