अद्भुत ग्रन्थ भगवद्गीता सुनाया युद्धक्षेत्र में, स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को!
वर्तमान में स्वामी रामसुखदास ने लिखा, अनुपम टीका साधक संजीवनी को !!
अर्जुन के रूप में हमारे दुःख का वर्णन है, प्रथम अध्याय अर्जुन विषादयोग में,
अपने को सही ठहराने के लिए, सही दिखते तर्कों को, लाते हम प्रयोग में,
शरीर मानो या स्वयं को आत्मा, करो विवेक का उपयोग,
कर्तव्य का पालन करो, व्यर्थ है चिंता, व्यर्थ है शोक।
मानव प्रकृति का विश्लेषण, अधिकार है मात्र कर्म करने का।
द्वितीय अध्याय सांख्य योग, उपदेश दे रहा ज्ञान एवं विवेक का।
कर्म करना है करने का वेग शांत करने के लिए,
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करने के लिए,
कर्म करने में, कुछ भी अपने लिए नहीं, यही मूल सिद्धांत है।
तृतीय अध्याय कर्मयोग कहता, कर्म ना करे वो भ्रांत है।
चतुर्थ अध्याय ज्ञानकर्मसन्यासयोग, करता यह स्पष्ट है।
जो आनंद पूर्वक कर्तव्य करे, कभी नहीं होता भ्रष्ट है।
कर्मयोग स्वतंत्र साधन, कर्म से निवृत्ति के लिए, कर्म का मार्ग है।
इससे कालेन, अवश्य ही प्राप्त होता तत्व, गृहस्थ का यही मार्ग है।
पंचम अध्याय कर्मसन्यासयोग में अर्जुन पुनः प्रश्न उठाते हैं!
कर्मयोग या कर्मसन्यास में क्या बेहतर, स्पष्ट नहीं बतलाते हैं?
कर्मसन्यास से भगवान, कर्मयोग को विशिष्ट बतलाते हैं।
और अंत में कहते हैं कि, भक्त शांति को प्राप्त हो जाते हैं।
षष्ठम् अध्याय ज्ञानविज्ञानयोग में, अपने से अपने उद्धार का मार्ग बताते हैं।
युक्त आहार विहार के साथ सधे, ऐसे ध्यानयोग का वर्णन करते हैं।
सप्तम अध्याय आत्मसंयम योग, कहा प्रभु ने स्वयं,
वासुदेव सर्वम इति, ऐसा महात्मा मिलना है दुर्गम।
अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु एवं ज्ञानी, भक्त होते सभी उदार हैं।
लेकिन गुणमयी दुरत्य माया से, केवल शरणागत होते पार हैं।
अष्टम अध्याय अक्षरब्रह्मयोग अधिदैव, अधियज्ञ एवं अधिभूत का वर्णन है,
मृत्यु शय्या पर व्यक्ति को सुनाने से, उसे निश्चित सद्गति मिले, ऐसा कथन है।
नवम अध्याय राजविद्याराजगुह्ययोग में, बढ़ता हैं भक्तियोग का प्रसंग,
भक्त प्रिय भगवान को, अतः यह उनकी मस्ती, उनकी तरंग।
मेरा हो, मुझमें मन लगा, सब कुछ मुझको कर दे अर्पण,
मेरे भक्त को पूर्ण बनाता मैं, और करता योगक्षेम वहन।
दशम अध्याय विभूतियोग में, अपनी विभूति अर्जुन को सुनाते हैं,
जो कुछ तेज या विशेषता संसार में, प्रभु उसे अपनी बतलाते हैं।
एकादश अध्याय विश्वरूप्दर्शनयोग, में विराट रूप दिखाते वासुदेव,
अनंत ब्रह्मांड जिनके शरीर के एक देश में, ऐसे लोकमहेश्वर देवदेव।
द्वादश अध्याय भक्तियोग अद्भुत कृपा है कृष्ण की यहाँ,
सर्वगुह्यतम भक्ति का विशद वर्णन, गोविंद ने किया जहाँ।
भक्त होता राग द्वेष से मुक्त, निर्वैर, निर्मम, निरहंकार,
सुख दुःख, हर्ष शोक से मुक्त, शत्रु मित्र पर करुणा अपार।
त्रयोदश अध्याय क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग में,
समझाया भगवान ने देह और देही का अंतर,
समझाया भगवान ने देह और देही का अंतर,
सम्पूर्ण सृष्टि में, सभी शरीरों में व्याप्त क्षेत्रज्ञ,
है मात्र एक आत्मा - परमात्मा स्वयं ।
है मात्र एक आत्मा - परमात्मा स्वयं ।
चतुर्दश अध्याय गुणत्रयविभागयोग में बतलाया,
प्रकृति में व्याप्त गुण सत्व, रजस एवं तमस्,
सत्व गुण से ज्ञान, प्रकाश, रजस से होती क्रिया,
तमस् से व्याप्त होता अज्ञान, प्रमाद, आलस्य।
पंचदश अध्याय पुरुषोत्तम योग में, परमात्मा का विशद वर्णन।
क्षर प्रकृति, अक्षर जीवात्मा, पुरुषोत्तम है भगवान कृष्ण स्वयं!
षोडश अध्याय दैवासुरीसंपद्विभागयोग में बताया,
देवी व आसुरी सम्पदा के गुण, प्रभाव को,
देवी व आसुरी सम्पदा के गुण, प्रभाव को,
अभिमानी मनुष्य नहीं हासिल कर पाता,
मानव जीवन में प्राप्य सत्य, आर्जव दैवी गुणों को।
मानव जीवन में प्राप्य सत्य, आर्जव दैवी गुणों को।
सप्तदश अध्याय श्रद्धात्रयविभागयोग में है कि,
श्रद्धा के अनुसार ही होता है मानव,
श्रद्धा के अनुसार ही होता है मानव,
सात्विक, राजसिक और तामसिक,
यथा श्रद्धा तथा तप, ज्ञान और दान कर्म।
यथा श्रद्धा तथा तप, ज्ञान और दान कर्म।
आहार और यजन के द्वारा भी श्रद्धा का होता है ज्ञान,
यथा श्रद्धा तथा भोजन और देव पूजन भी करता इंसान।
अष्टादश अध्याय मोक्षसन्यासयोग, प्रश्न है कि,
कर्मसन्यास अथवा कर्मफलत्याग ?
कर्मसन्यास अथवा कर्मफलत्याग ?
सत्व, राजस या तामस प्रकार के होते
कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति, सुख और ज्ञान।
कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति, सुख और ज्ञान।
लेकिन सर्वगुह्यतम योग गीता में, प्रभु ने बतलाया शरणागति,
अर्जुन का मोह नष्ट हुआ, प्राप्त हुई शाश्वत स्मृति।
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