भागवत माहात्म्य में गोकर्ण कथा से यह समझाया गया,
भागवत जीवित को सदा मुक्त करे, प्रेत भी मुक्त हो गया।
प्रथम स्कंध में पांडव, कृष्ण और परीक्षित का वर्णन,
परीक्षित मुक्त हो सात दिन में, इसके लिए कथा का उपक्रम।
द्वितीय स्कंध में सृष्टि रचना, काल गणना और विराट पुरुष का वर्णन,
सृष्टि की रचना करते ब्रह्मा, लेकिन उरप्रेरक हैं स्वयं नारायण।
तृतीय स्कंध में ब्रह्मा की सृष्टि का, दस रूपों में होता विस्तार,
मनु और शतरूपा के शासन के लिए, रसातल से आवश्यक पृथ्वी का उद्धार,
विष्णु पार्षद जय विजय का दैत्य हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के रूप में अवतार,
लाते पृथ्वी को अपनी दाढ़ों पर, करके हिरण्याक्ष बध,श्री विष्णु के वाराह अवतार ।
कर्दम और देवहूति के विवाह के साथ होता है प्रथम दिन का समापन,
देवहूति के गर्भ से कलावतार कपिल मुनि का होगा अवतरण।
तृतीय स्कंध में भगवान कपिल ने प्रणीत किया सांख्य योग,
सांख्य योगी के लिए भी निर्धारित किया उपाय भक्ति योग।
चतुर्थ स्कंध में पुरंजन आख्यान से, परोक्ष रूप से वर्णित आत्मयोग,
जीव भूलकर ईश्वर को, भोग से पाता, वृद्धावस्था एवं मृत्यु रोग।
स्वायंभुव मनु के पुत्र उत्तानपाद की संतानों का कर्तृत्व महान,
सुनीति पुत्र ध्रुव ने, पाया ध्रुव लोक और भक्ति का वरदान।
ध्रुव के पुत्र अंग की संतान पृथु भी भगवान विष्णु के अंशावतार,
जिन्होंने पृथ्वी को दुहकर संसार में अन्न व औषध का किया संचार।
पंचम स्कंध में मनुपुत्र प्रियव्रत चाहते थे केवल आत्मज्ञान,
ब्रह्मा के उपदेश से गृहस्थ हुए, भगवान ऋषभदेव बने संतान।
भरत थे उनके पुत्र, जिनके नाम से यह देश कहलाया भारतवर्ष,
राज्य का पालन किया, बने मुनि, पर मृग बालक से जुड़ गया शोक हर्ष।
अंतसमय में अटका मन, अगले जीवन में मृग बने,
लेकिन चेतना बनी रही, पुनर्जन्म में ब्राह्मण बने।
लोक की दृष्टि में जड़ भरत से, राजा रऊगण,
समझ पाते हैं वास्तविक तत्वज्ञान ,
शरीर में स्थित आत्मा, है शरीर से भिन्न,
भवाटवि में माया के वश, भटकता मानव जन्म।
महर्षि व्यास ने किया विशद वर्णन, नव वर्ष,
सप्तद्वीप, सप्त समुद्र, भूगोल व खगोल का,
नर नारायण की पूजा करता जंबूद्वीप में भारतवर्ष,
मानव के लिए लक्ष्य यहाँ, भक्ति, तत्वज्ञान का।
षष्ठम स्कंध में वर्णन त्वष्टा पुत्र, विश्वरूप के भाई, दैत्य वृत्रासुर का,
जिसके वध के लिए वज्र हेतु, दधीचि ने दान किया अस्थियों का।
युद्ध में जिसके आगे इंद्र भी लज्जित हुआ,
उसे भक्ति से प्राप्त, सर्वश्रेष्ठ परमपद हुआ।
सप्तम स्कंध में वर्णित, दैत्य हिरण्यकश्यप के ताप व ज्ञान का प्रभाव,
त्रिलोकी विजय, प्रकृति अनुकूल, परंतु मन में विष्णु के प्रति वैर भाव।
हिरण्यकश्यप के पुत्र हुए, दैत्य वंश कीर्तिवर्धक, महान भक्त प्रह्लाद,
जिनकी रक्षा के लिए, हुआ नरसिंह अवतार, धारण किया रूप विकराल।
भागवत धर्म का विशद वर्णन किया, सभी वर्णों एवं आश्रमों के लिए,
भगवदभक्ति, यम नियम का पालन, दान जप एवं श्रद्धा गृहस्थ के लिए।
अष्टम स्कंध में वर्णित समुद्र मंथन, दैत्य व देवोंके सहयोग से,
चौदह रत्न, लक्ष्मी विष्णु को, हलाहल विष पिया शिव ने।
कच्छप अवतार लिया विष्णु ने, मंदराचल पर्वत थामने के लिए,
विष्णु के मोहिनी अवतार ने छल से अमृत छीना देवों के लिए।
देवासुर संग्राम में दिखाया देवों एवं दानवों ने अद्भुत पराक्रम,
वामन अवतार लिया विष्णु ने, क्योंकि दानव पालन कर रहे धर्म।
उदारता की सीमा निश्चित कर दी, दानवराज बलि ने,
शत्रु के प्रति वचन का पालन, शाप दिया व्यथित गुरु ने।
मत्स्य अवतार से प्रलय के अंत में बीज रूप सृष्टि की रक्षा हुई,
ब्रह्मा की रात्रि व्यतीत हुई, पुनः सृष्टि रचना प्रारम्भ हुई।
नवम स्कंध के प्रारंभ में महान भक्त अंबरीष से कुपित हुए दुर्वासा ऋषि,
पासा उल्टा पड़ा, ब्रह्मा, रुद्र, इंद्र, विष्णु लोक, कहीं ना बच पाए ऋषि।
आख़िर भक्त की शरण में दुर्वासा की रक्षा हुई।
सुदर्शन चक्र से प्रार्थना जब स्वयं भक्त ने की।
इक्ष्वाकु वंश में हुए भागीरथ, गंगा लाए सगर पुत्रों के उद्धार हेतु,
इसी वंश में अवतरित हुए, भगवान श्रीराम राक्षसों के वध हेतु !
चंद्रवंश को ही कहा यदु वंश, माधव वंश और वृष्णि वंश,
अवतरित हुए पूर्ण अवतार श्री कृष्ण, निमित्त बन गया कंस।
दशम स्कंध में प्रभु श्री कृष्ण का लीला चरित्र,
आत्म रूप से सब में स्थित, कृष्ण सभी के मित्र।
आत्म रूप से सब में स्थित, कृष्ण सभी के मित्र।
माया रूप पूतना मारी,, बवंडर रूप तृणावर्त मारा,
यमलार्जुन वृक्षों से, कुबेर पुत्रों को उद्धारा।
बछड़े, बगुले और गधे के, रूप में भी मिले असुर,
छोड़ा नहीं किसी को, मारे अघासुर व प्रलम्बासुर,
यमुना जल को शुद्ध किया, कालियनाग के विष से,
कालिय को भी सुरक्षित किया मस्तक पर चरणचिह्न से।
यमुना जल को शुद्ध किया, कालियनाग के विष से,
कालिय को भी सुरक्षित किया मस्तक पर चरणचिह्न से।
प्रेम से भरा हुआ अवतार यह, प्रभु का अनुपम चरित्र,
बालक कृष्ण के श्रीदामा आदि, ग्वाले परम मित्र।
माखन चोरी की लीला में, सखा भी साथ निभाते हैं,
चित्तचोर मोहन भक्तों का माखन बाँट कर खाते हैं।
ब्रजरज खाकर मैया से कहते हैं, माटी नहीं खाई मैंने,
मुँह खोलकर सारी प्रकृति, माँ को दिखला दी कान्हा ने।
माखन चोरी की लीला में, सखा भी साथ निभाते हैं,
चित्तचोर मोहन भक्तों का माखन बाँट कर खाते हैं।
ब्रजरज खाकर मैया से कहते हैं, माटी नहीं खाई मैंने,
मुँह खोलकर सारी प्रकृति, माँ को दिखला दी कान्हा ने।
पर परमात्मा को तो देवो का भी दर्प दलन करना था,
इन्द्र और ब्रह्मा को भी सगुण परब्रह्म स्वीकारना था।
इन्द्र और ब्रह्मा को भी सगुण परब्रह्म स्वीकारना था।
इन्द्र की जगह गोवर्धन की पूजा, किया गिरिराज धारण,
इन्द्र का घमंड तोडा, और गोविन्द नाम किया धारण।
ब्रह्मा ने ग्वाल, बाल, बछड़े चुरा लिए,
प्रभु ने पुरे साल सारे रूप स्वयं बना लिए।
ब्रह्मा ने स्तुति की, माना कृष्ण परब्रह्म का अवतार है,
प्रभु कृपा पर दृष्टि रखो, संसार से, निश्चित बेडा पार है ।
अग्निपान करके, ब्रजवासियों व ग्वालों को सुरक्षित किया,
चीरहरण लीला से, लोक मर्यादा को निश्चित किया।
अपना स्त्री पुरुष होने का, अभिमान शरीर से ही है,
परमात्मा को पाने के लिए, अहम् से मुक्ति जरुरी है।
मुरली जब बजती है, गोपियों का मन हर लेती है,
वेणु गीत से गोपी बंशी के भाग्य की सराहना करती है।
ब्राह्मण गर्व करते रह गए, यज्ञपत्नियो का भाग्य जाग्रत हुआ,
उनके चतुर्विध पकवानों से, तृप्त जब परब्रह्म स्वयं हुआ।
प्रभु ने पुरे साल सारे रूप स्वयं बना लिए।
ब्रह्मा ने स्तुति की, माना कृष्ण परब्रह्म का अवतार है,
प्रभु कृपा पर दृष्टि रखो, संसार से, निश्चित बेडा पार है ।
अग्निपान करके, ब्रजवासियों व ग्वालों को सुरक्षित किया,
चीरहरण लीला से, लोक मर्यादा को निश्चित किया।
अपना स्त्री पुरुष होने का, अभिमान शरीर से ही है,
परमात्मा को पाने के लिए, अहम् से मुक्ति जरुरी है।
मुरली जब बजती है, गोपियों का मन हर लेती है,
वेणु गीत से गोपी बंशी के भाग्य की सराहना करती है।
ब्राह्मण गर्व करते रह गए, यज्ञपत्नियो का भाग्य जाग्रत हुआ,
उनके चतुर्विध पकवानों से, तृप्त जब परब्रह्म स्वयं हुआ।
रास पंचाध्यायी, कृष्ण विग्रह भागवत, का ह्रदय स्वरुप है,
यमुना पुलिन पर गोपी गीत, मिलन-विरह, दिव्य, अनूप है।
अश्वरुपी केशी और व्योमासुर का वध किया कृष्ण-बलराम ने,
अजगर से पिता नन्द को मुक्त किया, कृष्ण ने चरण स्पर्श से।
शंखचूड़ और अरिष्टासुर का भी उद्धार कर देते हैं,
प्रेमावतार में नन्द यशोदा व ग्वालों को प्रेम से भर देते हैं।
युगल गीत में गोपियाँ दोनों की शोभा का वर्णन करती है,
अक्रूर लेने आ गए कृष्ण को, ब्रज पर बिजली सी गिरती है।
कुब्जा से अंगराग, धोबी से वस्त्र प्राप्त करते हैं,
मथुरा में प्रवेश करके भगवान धनुष तोड़ देते हैं।
आतंकित कंस, कुवलीयापीड़ हाथी को, द्वार पर लगाता है,
चाणूर और मुष्टिक को, कुश्ती हेतु, कृष्ण व राम से लड़वाता है।
सब व्यर्थ हो जाता है, कृष्ण कर देते है संहार, दुष्ट मामा कंस का,
मिलते हैं वसुदेव देवकी से, उग्रसेन को राजा, बनाते हैं मथुरा का।
अक्रूर को भेजते हैं हस्तिनापुर, जानने को पांडवों का हाल,
देश में धर्मराज्य स्थापित करने के लिए, कृष्ण की पहली चाल।
कुब्जा जो बन गई थी सुंदरी, पाती है मात्र विषय सुख श्रीकृष्ण से,
कृष्ण का दर्शन-स्पर्श अमोघ, क्या चूक हुई भागवतकार से ?
उद्धव परम सखा कृष्ण के, ब्रज जाते हैं दूत बनकर,
भ्रमर गीत सुनाती हैं गोपियाँ, आते हैं भक्त बनकर।
गोपियाँ विरह में पाती हैं, कृष्ण को हर जगह,
सत्य है - मिलन में आनंद, मधुरतम है विरह।
कंस का श्वसुर जरासंध करता है सत्रह बार आक्रमण,
आखिर कालयवन भी आया, कृष्ण ने किया रण से पलायन।
समुद्र के मध्य, द्वारका बसा लेते हैं अपने यदुवंशी स्वजनों के लिए,
विश्वकर्मा बनाते हैं सुधर्मा सभा, आते हैं सभी देव, रिद्धि सिद्धि लिए।
भगवती लक्ष्मी की अवतार, रुक्मिणी का पत्र पाते हैं श्री भगवान,
कर लाते हैं हरण, होता है विवाह समारोह, द्वारका में महान।
यमुना पुलिन पर गोपी गीत, मिलन-विरह, दिव्य, अनूप है।
अश्वरुपी केशी और व्योमासुर का वध किया कृष्ण-बलराम ने,
अजगर से पिता नन्द को मुक्त किया, कृष्ण ने चरण स्पर्श से।
शंखचूड़ और अरिष्टासुर का भी उद्धार कर देते हैं,
प्रेमावतार में नन्द यशोदा व ग्वालों को प्रेम से भर देते हैं।
युगल गीत में गोपियाँ दोनों की शोभा का वर्णन करती है,
अक्रूर लेने आ गए कृष्ण को, ब्रज पर बिजली सी गिरती है।
कुब्जा से अंगराग, धोबी से वस्त्र प्राप्त करते हैं,
मथुरा में प्रवेश करके भगवान धनुष तोड़ देते हैं।
आतंकित कंस, कुवलीयापीड़ हाथी को, द्वार पर लगाता है,
चाणूर और मुष्टिक को, कुश्ती हेतु, कृष्ण व राम से लड़वाता है।
सब व्यर्थ हो जाता है, कृष्ण कर देते है संहार, दुष्ट मामा कंस का,
मिलते हैं वसुदेव देवकी से, उग्रसेन को राजा, बनाते हैं मथुरा का।
अक्रूर को भेजते हैं हस्तिनापुर, जानने को पांडवों का हाल,
देश में धर्मराज्य स्थापित करने के लिए, कृष्ण की पहली चाल।
कुब्जा जो बन गई थी सुंदरी, पाती है मात्र विषय सुख श्रीकृष्ण से,
कृष्ण का दर्शन-स्पर्श अमोघ, क्या चूक हुई भागवतकार से ?
उद्धव परम सखा कृष्ण के, ब्रज जाते हैं दूत बनकर,
भ्रमर गीत सुनाती हैं गोपियाँ, आते हैं भक्त बनकर।
गोपियाँ विरह में पाती हैं, कृष्ण को हर जगह,
सत्य है - मिलन में आनंद, मधुरतम है विरह।
कंस का श्वसुर जरासंध करता है सत्रह बार आक्रमण,
आखिर कालयवन भी आया, कृष्ण ने किया रण से पलायन।
समुद्र के मध्य, द्वारका बसा लेते हैं अपने यदुवंशी स्वजनों के लिए,
विश्वकर्मा बनाते हैं सुधर्मा सभा, आते हैं सभी देव, रिद्धि सिद्धि लिए।
भगवती लक्ष्मी की अवतार, रुक्मिणी का पत्र पाते हैं श्री भगवान,
कर लाते हैं हरण, होता है विवाह समारोह, द्वारका में महान।
कृष्ण के विवाह, रुक्मिणी के बाद, जांबवंती व सत्यभामा से,
कालिंदी, भद्रा, लक्ष्मणा, सत्या और मित्रवृन्दा से।
भौमासुर के कैद से छुड़ाई सोलह हजार राजकुमारियाँ,
दिया सर्वश्रेष्ठ सम्मान, कहलाई कृष्ण की धर्मपत्नियाँ।
यहीं पर मुर दैत्य का वध करके, पाया नाम मुरारि,
अमरावती से ले आए कल्पवृक्ष, खेल में लीलाधारी।
कामदेव के अवतार प्रद्युम्न को ले गया शम्बरासुर,
पत्नी रति ने किया पालन, सहयोग से वध किया असुर।
कामपुत्र अनिरुद्ध का हरण किया, बाणासुर पुत्री उषा ने,
शिव पार्षद बना बाणासुर, दिया प्राणदान द्वारकाधीश ने।
साम्ब के लिए दुर्योधन सुता, लक्ष्मणा ले आये बलराम,
द्वारका में विवाह समारोह, विकसित धर्म, अर्थ व काम।
शिशुपाल, पौण्ड्रक, दन्तवक्त्र व विदुरथ को स्वयं ने मारा,
कृष्ण की योजना से, दानवीर जरासंध को भीम ने मारा।
बलराम जी ने रुक्मी का वध खेल खेल में कर दिया,
सूतजी को अकारण मार, वृथा पाप सिर पर लिया।
तीर्थाटन करते हुए, मिथिला, हस्तिनापुर और ब्रज में भी रहे,
कृष्ण तो ब्रजवासियों से कुरुक्षेत्र में, ग्रहण स्नान पर ही मिले।
गुरुकुल मित्र ब्राह्मण का वर्णन है कृष्ण से द्वारका मिलने आने का,
कृष्ण ने दिया सम्मान, धन बहुत, बिना कारण पूछे आने का।
अपनी मित्रता का सम्मान, श्यामसुन्दर ने सदा ही किया,
अर्जुन, उद्धव, सुदामा और ग्वाल सखा, सभी को संतुष्ट किया।
रुक्मिणी से परिहास में, कृष्ण कुछ ऐसा कह देते हैं,
अभिमान मिटा देते हैं उनका, गृहस्थी का सूत्र बता देते हैं।
वसुदेव का विष्णु यज्ञ, देवकी का अपने छह पुत्रों से मिलन,
सुभद्रा हरण, देवों का आगमन, दशम स्कंध का समापन।
एकादश स्कंध में नौ योगीश्वर का अद्भुत संवाद,
कैसे होता है व्यक्ति का कल्याण, क्या है भक्त के लक्षण ?
क्या है माया और कैसे हों माया से पार, कौन है नारायण ?
कैसे हो कर्म , क्या होती गति, कैसे करें भक्ति और कितने अवतार?
दत्तात्रेय ने सीखा सूर्य, चन्द्र, आकाश, पृथ्वी, वायु, जल व अग्नि से,
मकड़ी, पतंगा, भौरा, मधुमक्खी, कुररी, कबूतर, भृंगी व मछली से।
सर्प, अजगर, हाथी, हरिण और बाण बनाने वाले से,
कुमारी कन्या, पिंगला वैश्या, बालक और शहद वाले से।
आखिर में अपना शरीर ही अपना गुरु है,
आत्मा को समझने का मार्ग यहीं से शुरू है।
एकादश स्कंध में भगवान उद्धव को गीता ज्ञान सुनाते हैं,
बहुत कुछ जो अर्जुन से कहा, उसे फिर से दोहराते हैं।
अर्जुन ने युद्ध लड़ा कुरुक्षेत्र में, गीता ज्ञान सुनने के बाद,
उद्धव गए बद्रिकाश्रम तप करने, वही ज्ञान सुनने के बाद।
दोनों घटनाओं से, साधक को यह समझ में आता है,
कि परमात्मा सदैव हमें कर्तव्य की राह दिखलाता है।
कर्तव्य है वर्तमान में, प्राप्त परिस्थिति में, मनस्थिति के अनुसार,
अपने कर्तव्य का पालन करो, निश्चित होगा तुम्हारा उद्धार।
ऋषि श्राप से यदुवंश का संहार हुआ, बलराम ने देह त्याग किया,
श्रीकृष्ण करते हैं स्वधाम गमन, इस अवतार का कार्य पूर्ण किया।
द्वादश स्कंध में कलियुग का वर्णन, राजाओं की वंशावलियाँ,
इतिहास की पुस्तक से मिलाकर, आप ढूँड सकते हैं त्रुटियाँ।
मार्कण्डेय ऋषि को, नर-नारायण ने, कराया माया का दर्शन,
परीक्षित की मृत्यु, पठन विधि, माहात्म्य, के साथ कथा समापन।
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